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________________ ७२२ जैन धर्म का मौलिक इतिहाम-द्वितीय भाग [प्रज्ञा प्रौर षट्खण्डागम गाथानों ने पूरक गाथाओं का काम करते हुए स्पष्ट कर ग्रन्थकार का सार रूप में मावश्यक परिचय दे दिया है। समझ में नहीं पाता कि षटखण्डागम के विद्वान् सम्पादकों को यहां मूल और प्रक्षेप की मान्यता में विभेद किस प्रकार दृष्टिगोचर हुमा। मूल गाथा में भगवान् को मूलतंत्रकर्ता और अपना 'महमवि' से परिचय देने वाले प्राचार्य को वस्तुतः उपतन्त्रकर्ता - अर्थात् पण्णवरणाकार बताया है। प्रक्षिप्त कही जाने वाली उन दो अन्यकत्र्तृक गाथाओं में भी ग्रन्थकार के नामोल्लेख के साथ मूल गाथानों की पुष्टि की गई है। "पन्नवणा सूत्र की रचना भगवान् महावीर ने की," यह निष्कर्ष विहान् सम्पादकों ने किस प्रकार निकाला? मूल और प्रक्षिप्त-दोनों ही प्रकार की गाथाओं में पनवणाकार भगवान् को न बता कर 'प्रहमवि' के रूप में अपना परिचय देने वाले आर्य श्याम को पन्नवरणाकार बताया गया है। त्रिपदी के उपदेश कर्ता के रूप में मूलतन्त्रतकर्ता तो प्रभु महावीर ही हैं। उस उपदेश के प्राधार पर द्वादशांगी की रचना करने वाले ग्यारहों गणधर अनुतन्त्रकर्ता और अनुतन्त्र दृष्टिवाद से प्रार्य श्याम ने 'पन्नवणा सूत्र' उवृत किया प्रतः मार्य श्याम उपतन्त्रकर्ता हैं।' मूलतः तो पन्नवणा सूत्र भी भगवान् की ही वारणी है। जिस प्रकार पनवणा को प्रार्य श्याम की कृति माना गया है, उसी प्रकार पट्खण्डागम को पुष्पदन्त-भूतबलि की कृति माना गया है।' भगवान महावीर के उपदेशों को प्राधार बनाकर पन्नवणाकार की तरह श्वेताम्बर और दिगम्बर, परम्परा के अनेक विद्वान् प्राचार्यों ने अनेक प्रन्यों की रचनाएं कीं, इस तथ्य के प्रमाण जैन वाङ्मय में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। बोधप्राभत की निम्नलिखित गाथानों से यह प्रमाणित होता है कि पन्नवणाकार के पद-चिन्हों पर अनेक प्राचार्य चले हैं : रूवत्यं शुद्धत्यं, जिसमग्गे जिरणवरेहि जह भणियं । भग्वजणबोहणस्थं, छक्कायहियंकरं उत्तं ॥६०॥ सद्दवियारो हुमो भासासुतेसु जं जिणे कहियं । सो तह कहियं गाणं, सीसेरण भद्दबाहुस्स ॥६१।।' पन्नवणाकार ने अन्य रचना का उपक्रम करते हुए प्रतिज्ञा की है कि श्री वीर प्रभु ने जिस तरह संसार के समस्त भावों की प्रज्ञापनामों का उपदेश .' पुण अण्णेहिं विसुवागमबुद्धिजुत्तेहि बेरेहि अप्पाठयाणं मणुयाणं प्रप्पबुद्धिसत्तीणं कदुग्गाहक-ति पाऊण तं देव प्रापाराइ सुयणाणं परंपरगतं अत्यतो गंपतोय प्रतिबहु ति काऊरण प्रणुकंपा णिमित्तं दसवेतालियमादि पवियं तं पणेगमेदं मरणंगपविलु। .. [पावश्यक पूणि, मा १, पृ.] 'तदो मतंतकत्ता बढमाण भडारप्रो, प्रणुतंतकता गोदमसामी, उपवंतकतारा दवनि पुष्फयंतादयो। [षट्सम्यागम, भाग १, पृ.७३] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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