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प्रज्ञा और षट्खण्डागम] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण __७२१ निर्भर करता है। प्रार्य सुधर्मा से आर्य श्यामाचार्य तक ३७६ वर्ष का समय अनेक प्रामाणिक उल्लेखों द्वारा परिपुष्ट और तर्क की कसौटी पर भी खरा उतरता है । अतः नन्दी सूत्रान्तर्गत पट्टावलि में उल्लिखित आचार्यों के अतिरिक्त और भी कोई अज्ञातनामा १० प्राचार्य हुए हों, इस प्रकार की कल्पना तो किसी भी दशा में नहीं की जा सकती।
___ वस्तुतः – “सुधर्मादारभ्य" किस दृष्टि से लिखा गया है, इस सम्बन्ध में कहीं कोई प्रामाणिक उल्लेख उपलब्ध न होने के कारणं हम साधिकारिक रूप से कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं हैं। इतिहास के विद्वान इस सम्बन्ध में समूचित खोज कर विशेष प्रकाश डालेंगे तो प्रत्युत्तम होगा।
"पन्नवणासूत्र आर्य श्याम की कृति है" - इस तथ्य के प्रति शंका प्रकट करते हुए श्री ए. एन. उपाध्ये और श्री हीरालालजी- इन डाक्टरद्वय ने षट्खण्डागम, प्रथम पुस्तक (द्वितीय संस्करण) के अपने संपादकीय में लिखा है --- " - ग्रन्थ की अंगभूत गाथा में तो स्पष्ट कहा गया है कि पण्णवणा का उपदेश भगवान् जिनवर ने भव्यजनों की निवृत्ति हेतु किया था, जब कि प्रक्षिप्त गाथाओं में दुर्द्धर, धीर व समृद्धबुद्धि मुनि श्यामाचार्य द्वारा किया प्रनिर्दिष्ट श्रुतरत्न का दान अपने शिष्यगण को दिया गया। क्या प्रस्तुत ग्रन्थ कर्त्तत्व के विषय में मूल और प्रक्षेप की मान्यता एक ही कही जा सकती है ?"
प्राज के जैन जगत के उच्च कोटि के इन दो विद्वानों द्वारा लिखी गई उपरोक्त पंक्तियों को पढ़कर संभवतः प्रत्येक प्रबुद्ध पाठक को वस्तुतः बड़ा आश्चर्य होगा। क्योंकि पन्नवणा सूत्र की अंगभूत दूसरी और तीसरी गाथा का अर्थ इस प्रकार है :
___"भव्य जनों की निवत्ति करने वाले जिनेश्वर ने श्रतरत्न के प्रक्षय्य भण्डार स्वरूप सभी भावों की प्रज्ञापनाओं का उपदेश दिया ॥२॥ जिस प्रकार भगवान ने (सब भावों की प्रज्ञापना का) वर्णन किया, उसी प्रकार मैं भी दृष्टिवाद से उद्धृत अद्भुत श्रुतरत्न स्वरूप इस अध्ययन (पन्नवरणा सूत्र) का निरूपण-वर्णन करू गा ॥३॥
___तोसरी गाथा के अन्त में उल्लिखित वे "अहमवि" कौन हैं, यह सुनिश्चित रूप से बताने के लिये ही मुख्यतः किसी अज्ञातनामा प्राचार्य ने दो गाथाएं मूल के बीच में जोड़ी हैं, जिनमें सार रूप में यह बताया गया है कि जिस तेवीसवें वाचकोत्तम प्रार्य श्याम ने श्रुतसागर से उद्धत कर (यह) श्रुतरत्न शिष्य समूह को दिया, उन आर्य श्याम को नमस्कार है।
__मूल गाथाओं के पश्चात् इन अन्यकर्तक प्रक्षिप्त गाथाओं को पढ़ने से अनायास ही यह बोध हो जाता है कि मूल गाथाओं में ग्रन्थकार ने अपना नाम न बताकर अपने लिये जो केवल "अहमवि" शब्द का प्रयोग किया है, उसे दो प्रक्षिप्त .' पनवणा, गा. २ भोर ३
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