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________________ श्रार्य जम्बू के पूर्वभव ] केवलिकाल : आर्य जम्बू १९५ ब्राह्मणी की बात सुनकर मुनि भवदेव ने कहा - "धर्मशीले! तुम बालक को यह क्या कह रही हो ? वमन की हुई वस्तु को खाने वाला व्यक्ति तो अत्यन्त निकृष्ट और घृणापात्र होता है ।" इस पर नागिला ने मुनि को सम्बोधित करते हुए कहा - " महात्मन् ! आप अपने अन्तर्मन को टटोलिए कि कहीं प्राप भी वमितभोजी तो नहीं बनने जा रहे हैं ? क्योंकि एक वार परित्यक्त मेरे इस मांस, मज्जा, प्रस्थि आदि से बने शरीर को अपने उपभोग में लेने की अभिलाषा से आप यहां आये हैं । ग्राप बुरा न मानें तो मैं आपसे एक बात पूछू ? चिरपरिपालित प्रव्रज्या का परित्याग करने का जो विचार ग्रापके मन में ग्राया है क्या इस बारे में आपको किंचित्मात्र भी लज्जा का अनुभव नहीं होता ? यदि लज्जा का अनुभव होता है तो ग्रव ग्राम बाह्यरूपेण चिरकाल तक परिपालित श्रमणाचार का अन्तर्मन से पूर्णरूपेण परिपालन कीजिए। जो कुत्सित विचार आपके मन में आये हैं उनके लिए प्राचार्य सुस्थित के पास जाकर प्रायश्चित्त लीजिए।' नागिला के हितप्रद एवं बोधपूर्ण वचन सुन कर भवदेव के हृदयपटल पर छाये हुए मोह के घने बादल तत्क्षण छिन्न-भिन्न हो गए और उसका अज्ञानतिमिराच्छन्न अन्तःकरण ज्ञान के दिव्य प्रकाश से आलोकित हो उठा । उसने नागिला के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हुए शान्त निश्छल स्वर में कहा - " श्राविके ! तुमने मेरी अन्तर्चक्षुत्रों को उन्मीलित कर दिया है। तुम्हारे उपदेश से मैंने अपने चिरपालित संयम मार्ग को हृदय से अपना लिया है । वस्तुतः तुमने मुझे अन्धकूप में गिरने से बचा लिया है। तुम मेरी सच्ची सहोदरा श्री गुरुरणी तुल्य हो । तुमने मेरे ऊपर बड़ा उपकार किया है । मैं अब तुम्हारे कथनानुसार निर्दोष साधुधर्म का त्रिकररण- त्रियोग से पालन करूंगा ।' यह कह भवदेव वहां से प्रस्थान कर प्राचार्य सुस्थित के पास पहुँचे और अपने दोषों के लिए प्रायश्चित्त कर कठोर तपश्चरण में निरत हो गये । अनेक वर्षों तक श्रमरणधर्म का पालन करने के पश्चात् समाधिपूर्वक काल कर वह सौधर्मेन्द्र के सामानिक देव हुए। इधर नागिला भी अपनी गुरुरणी के पास दीक्षित हो संयमधर्म की साधना करती हई देवगति की अधिकारिणी बनी । सागरदत्त और शिवकुमार सौधर्म देवलोक की आयु पूर्ण होने पर भवदत्त का जीव वहां से च्युत हो महाविदेह क्षेत्रान्तर्गत पुष्कलावती विजय में पुण्डरीकिणी नगरी के चक्रवर्ती सम्राट् वज्रदत्त की महारानी यशोधरा के गर्भ में आया । गर्भकाल में महादेवी को सागरस्नान का दोहद उत्पन्न हुआ जिसे चक्रवर्ती वज्रदत्त ने वड़े समारोह के साथ पूर्ण किया। गर्भकाल पूर्ण होने पर महारानी ने अत्यन्त मनोहर एवं शुभलक्षणसम्पन्न पुत्र को जन्म दिया। गर्भकाल में सागर-स्नान के दोहद के कारण माता-पिता ने पुत्र का नाम सागरदत्त रखा । अपनी परमाह्लादकारिणी For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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