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________________ ७०७ प्रशा० प्रौर षट्सण्डागम] सामान्य पूर्वधर-काल : देवद्धि क्षमाश्रमण ७०७ स्थानों द्वारा किया गया है । इस प्रकरण में पन्नवणासूत्र की शैली को अपना लिया गया है। . इन दोनो प्रागमों के सूक्ष्म तथा निष्पक्ष अध्ययन से इस प्रकार की और भी कतिपय समानताओं को प्रकाश में लाया जा सकता है। उपरिलिखित समानतामों पर विचार करने के पश्चात् कम के कम यह तथ्य तो निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि इन दोनों का स्रोत एक है, इन दोनों का विषय एवं इन दोनों की प्रतिपाद्य वस्तु एक है। यदि इनमें भिन्नता नाम की कोई वस्तु है तो वह है ग्रन्थ और ग्रन्थकार के नाम की और निरूपण-शैली की। गति प्रादि मार्गरणास्थानों द्वारा जीव के अल्प - बहुत्व पर विचार करने के तत्काल पश्चात् इन दोनों ग्रन्थों के एतद्विषयक प्रकरण में महादण्डक का निरूपण तथा षटखण्डागम के "खुद्दाबंध" नामक द्वितीय खण्ड में पन्नवणासूत्र के समान जीवप्रधान निरूपण शैली को अपनाना-ये दो तथ्य निष्पक्ष विचारकों के इस अनुमान को पुष्ट करते हैं कि इन दोनों ग्रन्थों में से किसी एक की रचना के समय उसके रचनाकार के समक्ष इनमें से कोई एक ग्रन्थ अवश्य ही आधार रूप में विद्यमान रहा होगा। पन्नवरणासूत्र और षट्खण्डागम इन दोनों ग्रन्थों में अधिक प्राचीन कौनसा ग्रन्थ है, इसका निर्णय इन दोनों ग्रन्थों के प्रणेतामों के काल-निर्णय के अनन्तर स्वतः ही हो जाता है। श्वेताम्बर परम्परा की परम्परागत मान्यतानमार पन्नदगामुत्र के प्रणेता दश पूर्वघर प्रार्य श्यामाचार्य और दिगम्बर परम्परा की परम्परागत मान्यतानुसार षट्खण्डागम के प्रणयनकार हैं पूर्व तथा अंगज्ञान ? एक दशधा सादार्य परसेन के शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि । दश पूर्वधर प्रार्य श्यामाचार्य ने पन्नवणासूत्र की रचना की इस श्वेताम्बर परम्परा की परम्परागत मान्यता की पुष्टि में मुख्य रूप से निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किये जाते हैं : १. पन्नवणासूत्र के प्रारम्भ में ग्रन्थकार द्वारा तीन गाथाएं दी गई हैं। पहली गाथा में सिद्धों को नमस्कार करने के अनन्तर त्रैलोक्य गुरू भगवान् महावीर का बंदन किया गया है। दूसरी और तीसरी गाथा में ग्रन्थकार ने कहा है कि भव्य जीवों का उद्धार करने वाले भगवान् ने श्रुतरत्ननिधान स्वरूप सब भावों की प्रज्ञापना का उपदेश दिया। जिस प्रकार भगवान् ने वर्णन किया है, उसी प्रकार मैं भी दृष्टिवाद से उद्धृत श्रुतरत्नस्वरूप इस अति सुन्दर अध्ययन का वर्णन करूगा। ... तीसरी गाथा के अन्तिम चरण में आये हए - "अहमवि तह वाइस्सामि" से ग्रन्थकार के नाम का बोध नहीं होता अतः प्राचीन काल में किसी प्राचार्य ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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