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________________ ५२८ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रा० वृ० और सिद्धसेन । बाल्यकाल में संस्कृत के अभ्यास के कारण सिद्धसेन को उनका यह कयन बुरा लगा। नमोऽर्हसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः - इस प्रकार नमस्कार मंत्र का उन्होंने संस्कृत में उच्चारण कर विद्वत्समाज को सुनाया और उपाश्रय में प्राकर अपने गुरू के समक्ष नमस्कारमन्त्र का संस्कृत रूपान्तर सुनाते हुए जैन शास्त्रों को संस्कृत भाषा में रचने का विचार प्रस्तुत किया। इस पर संघ ने कहा - "सिद्धसेन ! आपने वाणी के दोष से पाप का उपार्जन कर लिया है। तीर्थकर भगवान और गणधर संस्कृत से अनभिज्ञ नहीं थे । ऐसा करने से तीर्थकर-गणधरों की अवहेलना होती है। आपने अनादि शाश्वत नमस्कार मंत्र का संस्कृत भाषा में अनुवाद कर घोर अपराध किया है। आप इसकी शुद्धि के लिये दशवें पारांचिक प्रायश्चित्त के भागी होते हैं । ____ यह सुनकर सिद्धसेन ने संघ और गुरु को साक्षी से १२ वर्ष पर्यन्त मौन के साथ मुखवस्त्रिका रजोहरण रूप साधुवेश को गुप्त रख कर शासन की सेवा करने का पाराश्चिक प्रायश्चित्त स्वीकार किया। वे गुप्त रूप से शासन की सेवा के कार्य में निरत हो गये और अनेक राजानों को प्रतिबोध देते हुए सातवें वर्ष के पश्चात् उज्जैन पहुंचे। कहा जाता है कि अवधूत वेष में वे महाकालेश्वर के मन्दिर में जा, शिवलिंग की ओर पैर फैलाकर लेट गये। प्रभाचन्द्र और राजशेखर ने शिवलिंग की अोर पर करके लेटने का उल्लेख नहीं किया है। प्रातःकाल जब पुजारियों ने उन्हें शिवलिंग की पोर पर किये देखा तो उन्होंने सिद्धसेन को वहां से हट जाने के लिए बहुत कुछ कहा-सुना पर उनके सभी प्रयत्न निष्फल रहे । अन्त में उन्होंने राजा के पास पुकार की। राजा ने क्रुद्ध हो अपने सेवकों को आदेश दिया कि वे तत्काल उस योगी को कोड़े मार कर वहां से भगा दें। राजपुरुषों ने महाकालेश्वर के मन्दिर में पहुँच कर उस योगी को बहुत कुछ समझाया, डराया, धमकाया और इस पर भी उसके न हटने पर उसे कोड़ों से मारना प्रारम्भ किया। सब लोग यह देखकर विस्मित हो गये कि योगी के शरीर पर एक भी कोड़ा नहीं लगा। यह देख राजपुरुष अवाक रह गये। उन्होंने राजा को सूचित् किया। इस अद्भुत घटना से आश्चर्यचकित हो राजा विक्रमादित्य स्वयं तत्काल महाकाल के मन्दिर में गये और योगी से कहने लगे-"महात्मन ! श्रापको इस प्रकार शिवलिंग की ओर पैर करके सोना शोभा नहीं देता। आपको तो विश्ववन्द्य शिव को प्रणाम करना चाहिये।" __योगी ने कहा- "राजन् ! आपका यह देव-शिवलिंग मेरा नमस्कार सहन नहीं कर सकेगा।" राजा द्वारा बार-बार आग्रह किये जाने पर सिद्धसेन ने महादेव ' (क) ततो विमृश्याभिदधेऽसौ - संघोऽवधारयतु, प्रहमाश्रितमोनो द्वादशवार्षिकं पाराञ्चिकं नाम प्रायश्चित्तं गुप्तमुखवस्त्रिका-रजोहरणादिलिङ्गः प्रकटितावधूतरूपश्चरिष्याम्युपयुक्तः । [प्रबन्धकोश, पृ० १८] (ख) प्रभावक चरित्र पु०५८ २.यह घटना प्रार्य खपुट के जीवन परिचय में दी गई घटना से मेल खाती है। - सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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