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________________ ५२६ आ० वृद्धवादी और सिद्धमेन] दशपूवंधर-काल प्रायं समुद्र के मच्चे स्वरूप की स्तुति प्रारम्भ की । कतिपय कथा ग्रन्थों में बताया गया है। कि सिद्धसेन स्तुति के कुछ ही श्लोकों का उच्चारण कर पाये थे कि अद्भुत तेज के साथ वहां भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रकट हो गई । राजा विक्रमादित्य प्रचिन्त्य आत्मशक्ति के अनेक चमत्कारों को देख कर सिद्धसेन के परम भक्त बन गये । इस प्रकार सिद्धसेन ने ७ वर्षों में १८ राजाओं को प्रतिबोध देकर जैन बनाया। कहा जाता है कि प्रायश्चित्तकाल के ५ वर्ष अवशिष्ट रह जाने पर भी श्रीसंघ ने सिद्धसेन के महाप्रभावक कार्यों से प्रसन्न हो कर उनके प्रायश्चित के शेष काल को क्षमा कर दिया। महाराज विक्रमादित्य और उनके धर्मकृत्यों पर प्राचार्य सिद्धसेन का गहरा प्रभाव माना जाता है । सिद्धसेन के प्रभाव से ही महाराज विक्रमादित्य ने जैनधर्मानुयायी बन कर अनेक परोपकार के कार्य किये थे। जैन साहित्य के विभिन्न ग्रन्थों में आज भी विक्रमादित्य के गुण- गौरव का विशद वर्णन उपलब्ध होता है । प्राचार्य सिद्धसेन उद्भट विद्वान्, महाप्रभावक मधुर वक्ता, कुशल संघसंचालक एवं उच्च कोटि के साहित्यकार थे। उनकी चतुर्मुखी प्रतिभा को प्रमाणित करने वाला उनका विशाल साहित्य प्राज भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है । आप न्यायावतार, सन्मतितर्क, बत्तीस द्वात्रिशिकाएं, नयावतार, कल्याणमन्दिर स्तोत्र, और प्राचारांग पर गन्धहस्ती के विवरण की टीका आदि प्रमुख ग्रन्थों के रचनाकार माने गये हैं । सिद्धसेन दिवाकर का काल विक्रम की पहली शता माना जाता है । कुछ विद्वानों ने आपका काल विक्रम की चौथी पांचवीं शताब्दी माना है । प्रभावक चरित्र, प्रबन्धकोश आदि के उल्लेखों से श्रापका काल विक्रम की पहली शताब्दी ही प्रमाणित होता है । आपके पिता का नाम देवर्षि श्रौर माता का नाम देवश्री था । आप जाति से कात्यायन ब्राह्मण थे। कहा जाता है कि दीक्षित होने से पहले वे पाण्डित्य के अभिमान में पेट पर लोहे का पट्टा, एक हाथ में कुदाली और दूसरे हाथ में निसैनी रख कर चला करते थे । घटनाचक्र के चित्रण पर निष्पक्षरूप से विचार करने पर प्रतीत होता है कि ग्रंथकारों द्वारा अनेक स्थलों पर साहित्यिक अलंकार के रूप में अतिरंजन के साथ भी कतिपय घटनात्रों का उल्लेख किया गया है। चार्य पुट द्वितीय कालकाचार्य के पश्चात् प्रभावक श्राचार्यों में श्रार्य खपुट विशेष प्रभावशाली माने गये हैं। इनके जन्म, जन्मस्थान, माता-पिता आदि के सम्बन्ध में परिचय उपलब्ध नहीं होता। इनके जीवन की कतिपय प्रभावोत्पादक घटनाओं का उल्लेख जैन साहित्य में दृष्टिगोचर होता है । आर्य खपुट का युग सम्भवतः विशिष्ट विद्याओं का युग रहा है । For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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