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________________ ५७६ और विनयशीलता] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य नागहस्ती संध्याकाल में चिन्ता रहने लगी कि कहीं दश पूर्वो का ज्ञान उनके साथ ही विच्छिन्न न हो जाय । महान् विभूतियों को आध्यात्मिक चिन्ता अधिक दिनों तक नहीं रह सकती, इस पारम्परिक जनश्रुति के अनुसार आर्य तोसलिपुत्र के आदेश से युवा मुनि प्रार्य रक्षित प्राचार्य वज्रस्वामी की सेवा में उपस्थित हुए। उन्होंने आर्य वज्रस्वामी से ह पूर्वो का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया पर दसवें पूर्व का वे प्राधा ही ज्ञान प्राप्त कर सके। एतद्विषयक पूरा विवरण प्रार्य रक्षित के इतिवृत्त में दिया जा रहा है। तत्पश्चात् अनेक क्षेत्रों में भगवान महावीर के धर्म-शासन का उद्योत करते हुए वज्रस्वामी आर्यावर्त के दक्षिणी क्षेत्र में पधारे। वहां कफ की शान्ति के लिए उन्होंने अपने किसी शिष्य से सोंठ मंगवाई। उपयोग के पश्चात् अवशिष्ट सोंठ को वज्रस्वामी ने अपने कान के ऊपरी भाग पर रख लिया और भूल गये। मध्याह्नोत्तर वेला में प्रतिलेखन के समय मुखवस्त्रिका को उतारने के साथ ही सोंठ पृथ्वी पर गिर पड़ी। यह देखकर वज्रस्वामी ने मन ही मन विचार किया "मेरी पायु का वस्तुतः अन्तिम छोर प्रा पहुंचा है और मैं प्रमादशील हो गया है इसी कारण कान पर सोंठ को रखकर मैं भूल गया। प्रमाद में संयम कहां? अतः मेरे लिए भक्त का प्रत्याख्यान कर लेना श्रेयस्कर है।"' तत्काल उन्होंने ज्ञान के उपयोग से देखा कि शीघ्र ही एक और बड़ा भयावह द्वादशवार्षिक दुष्काल पड़ने ही वाला है, जो पहले के दुष्काल से भी प्रत्यन्त भीषण होगा । उस भीषण दुष्काल के कारण कहीं ऐसा न हो कि एक भी साधु जीवित न रह सके । इस दृष्टि से साधुवंश की रक्षा हेतु वज्रस्वामी ने अपने शिष्य वज्रसेन को कुछ साधुओं के साथ कुंकुरण (कोंकण) प्रदेश की ओर विहार करने और सुभिक्ष न हो जाने तक उसी क्षेत्र में विचरण करने की प्राज्ञा दी। उन्होंने प्रार्य वज्रसेन से यह भी कहा - "जिस दिन एक लाख मुद्रामों के मूल्य के चावलों के आहार में कहीं विष मिलाने की तैयारी की जा रही हो, उस दिन तुम समझ लेना कि दुष्काल का अन्तिम दिन है। उसके दूसरे दिन ही सुभिक्ष (सुकाल) हो जायगा।"२ गुरु के आदेश को शिरोधार्य कर आर्य वजसेन ने कतिपय साधुओं के साथ कंकुरण की ओर विहार कर दिया और धन-धान्य से परिपूर्ण उस क्षेत्र में विचरण करने लगे। प्रार्य ववस्वामी जिस क्षेत्र में विचरण कर रहे थे, उस क्षेत्र में शनैः शनैः दुष्काल का दुष्प्रभाव भीषण से भीषणतर होने लगा। कई दिनों तक भिक्षा प्राप्त न होने के कारण भूख से पीड़ित साधुनों को वज्रस्वामी ने अपने विद्या बल से प्रतिदिन समानीत पिण्ड देते हुए कहा- "यह विद्या पिण्ड है और इस प्रकार ' तेसि उवमोगो जातो अहो ! पमत्तो जातो, पमत्तस्स मे नत्थि संजमो, तं सेयं खलु मे भत्त - पच्चक्खाइत्तए। [मावश्यक मलय पत्र, ३६५ (२)] इत्याकयं मुनिः प्राह, गुरुशिक्षाचमत्कृतः । धर्मशीले शृणु श्रीमद्ववस्वामिनिवेदितं ॥१६०।। स्थालीपाके किलकत्र, लक्षमूल्ये समीक्षिते ।। सुभिक्षं भावि सविषं, पाकं मा कुरु तथा ॥१६१॥ . [प्रभावक चरित्र पृ०८] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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