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________________ ५८० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ श्रार्य वज्र की प्रतिभा 4 १२ वर्ष व्यतीत करने हैं । यदि संयमगुण की वृद्धि मालूम होती हो तो यह पिण्ड ग्रहरण करो और यदि संयमगुरण में किसी प्रकार का लाभ नहीं दिखता हो तो हम लोगों को श्राजीवन अनशन ( संधारा) कर लेना चाहिये । आप लोग स्वेच्छापूर्वक इन दो मार्गों में से जिस मार्ग को श्रेयस्कर समझते हों, उस ही मार्ग को अंगीकार कर सकते हैं ।" वज्रस्वामी की उपरिकथित बात सुनकर सब ( ५००) साधुनों ने एकमत हो आमरण अनशन करने का अपना निश्चय उनके सामने अभिव्यक्त किया । अपने ५०० ही शिष्यों का एक ही दृढ़ निश्चय सुनकर प्राचार्य वज्रस्वामी ने अपने शिष्यसंघ सहित दक्षिण प्रदेश के मांगिया' नामक एक पर्वत की ओर प्रस्थान किया । उन्होंने अपने नववय के एक साधु को अनशन में सम्मिलित न होने के लिए समझाया पर वह नहीं माना। मार्ग में प्राचार्य वज्रस्वामी ने उस नववय के साधु किसी कार्य के व्याज से एक गांव में भेज दिया और वे अपने अन्य सब साधुत्रों के साथ उस पर्वत पर जा पहुँचे । पर्वत पर पहुंचने के पश्चात् आर्य वज्र स्वामी तथा उनके सभी शिष्यों ने भूमि का प्रतिलेखन किया और सबने यावज्जीव सभी प्रकार के प्रशन - पानादि का परित्याग कर अनशन ग्रहण कर लिया । उधर वह युवा साधु गांव से पुनः उसी स्थान पर लौटा, जहां से उसके गुरु ने उसे गांव में भेजा था । अन्य साधुओं सहित वज्रस्वामी को वहां न देख कर वह युवा साधु समझ गया कि गुरु ने जानबूझ कर उसे अनशन के लिए साथ नहीं लिया है। उसने मन ही मन सोचा "गुरुदेव मुझे सत्वहीन समझ कर पीछे छोड़ गये हैं । क्या मैं वस्तुत: निस्सत्व है, निर्वीर्य है ? सम्भवतः मुझे अनशन के अयोग्य समझ कर ही गुरुदेव ने पीछे छोड़ दिया है । संयम की रक्षार्थ गुरुदेव अन्य सब साधुषों के साथ अनशन ग्रहण कर रहे हैं, तो मुझे भी उन्हीं के पदचिन्हों पर चलना चाहिये ।" यह विचार कर उस युवा साधु ने उत्कट वैराग्य के साथ पर्वत की तलहटी में पड़ी हुई एक प्रतप्त पाषाणशिला पर पादपोपगमन अनशन ग्रहण कर लिया । तप्तशिला श्रीर सूर्य की प्रखर किरणें मुनि को भाग की तरह जलाने लगीं । पर अनित्य भावना से श्रोतः प्रोत मुनि ने अपने शरीर के साथ मन को भी पूर्णरूपेण निश्चल रखा और अंतर्मुहूर्त काल में ही वे अपने विनाशशील शरीर का परित्याग कर स्वर्गवासी हुए । देवों ने दिव्य घोष के साथ मुनि के धैर्य, वीर्य एवं गाम्भीर्य का गुणगान किया । दक्षिण प्रदेश के जिस मांगिया नामक पर्वत पर प्राचार्य वज्ज्रस्वामी और उनके साधु अनशनपूर्वक निश्चल प्रासन से श्रात्मचिन्तन में निरत थे, उस ही पर्वत के धोभाग में देवताओं द्वारा मनाये जा रहे महोत्सव की दिव्यध्वनि सुन कर एक वृद्ध साधु ने वज्रस्वामी से उसका कारण पूछा। प्राचार्य वज्रस्वामी ने किशोर वय के मुनि द्वारा प्रतप्त शिला पर पादपोपगमन अनशन ग्रहण करने और उसके " बीर वंशावली प्रथवा तपागच्छ बुद्ध पट्टावली, जैन साहित्य संशोधक, खंड १, अंक ३, पू. १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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