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________________ ६३. जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [तत्का० राजन० स्थिति विशाल सेनाओं के कारण विदेशियों को भारत के विभिन्न प्रदेशों पर अपना आधिपत्य स्थापित करने में सफलताएं मिलीं पर भारतीय राज्य शक्तियां उन विदेशियों के साथ प्रायः निरन्तर संघर्षरत रहीं। भारतीय जनता एवं राज्य शक्तियों द्वारा किये गये उन संघर्षों तथा विदेशी आक्रान्ताओं के परस्पर टकराने के फलस्वरूप अन्ततोगत्वा वे विदेशी शक्तियां क्षीण होते होते विलीन ही हो गई। जिस प्रकार यूनानियों के शासन को प्रथमतः चन्द्रगुप्त मौर्य और तदनन्तर शकों ने, शकों के शासन को वीर नि० सं० ४७० में विक्रमादित्य ने और तदनन्तर वीर नि० सं० ६०५ में गौमतीपुत्र सातकर्णी (शालिवाहन) ने समाप्त किया, उसी प्रकार भारत के विदेशी पार्थियनों के शासन को विदेशी यू-ची जाति के कुषाणों ने समाप्त किया। प्रार्य रेवतीनक्षत्र के वाचनाचार्य-काल से पूर्व कुजुल कैडफाइसिस (प्रथम) नामक कुषाण सरदार ने पार्थियनों को पराजित कर गान्धार (अफगानिस्तान) और पंजाब के कुछ प्रदेशों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। उसके पुत्र वेम कंडफाइसिस ने भारत में और आगे बढ़ना प्रारम्भ किया और. आर्य दुर्बलिकापुष्यमित्र के युगप्रधानत्व काल में पूरे पंजाब तथा दुपाबा पर अपना अधिकार करने के पश्चात् पूर्व में वाराणसी तक अपने राज्य की सीमा का विस्तार कर लिया। विदेशी आक्रमणों के कारण देश को सर्वतोमुखी हानि हुई। विदेशी माक्रान्ताओं के अत्याचारों से संत्रस्त जनमानस में असहिष्णता, पारस्परिक जातीय, सामाजिक एवं धार्मिक विद्वेष ने बल पकड़ा। विदेशियों द्वारा देश एवं देशवासियों की जो दुर्दशा की जाती उसके लिए एक जाति दूसरी जाति को एक धर्मावलम्बी दूसरे धर्मावलम्बियों को, एक वर्ग दूसरे वर्ग को दोषी ठहराने लगा। देशवासियों के मन में उत्पन्न हुई इस प्रकार की घातक मनोवृत्ति से देश को जो हानि हुई, उसे प्रांका तक नहीं जा सकता क्योंकि वस्तुतः वह विदेशी प्राक्रमणों से हई हानि से कई गुना अधिक थी। इतिहास साक्षी है कि इस प्रकार की विकृत मनोवृत्ति को निहित-स्वार्थ लोगों ने समय-समय पर उभाड़ा। इसका परिणाम यह हमा कि सहस्राब्दियों से साथ-साथ रहते प्राये वर्गों, धर्मावलम्बियों एवं जातियों ने परस्पर एक दूसरे को मिटाने के अनेक प्रयास किये। भारत से बौदधर्म की समाप्ति में अनेक कारणों के साथ-साथ इस प्रकार का धार्मिक विद्वेष भी प्रमुख कारण रहा है। पुष्यमित्र शंग द्वारा बौद्धों और बौद्धधर्म के विरुद्ध किया गया अभियान इस तथ्य का साक्षी है। भारत में विदेशी प्राक्रान्तामों की सफलतामों के परिणामस्वरूप उत्पन हुई उन विषम परिस्थितियों में जैनधर्मावलम्बियों को भी बरे कठिन दौर से गुजरना पड़ा। मौर्य सम्राट् सम्प्रति के राज्यकाल में, जहां भारत और भारत के पड़ोसी राष्ट्रों में भी जनधर्म का प्रभूतपूर्व प्रचार-प्रसार हमा, वहां की पहली शताब्दी के प्रथम चरण से भारत पर प्रारम्भ होने बामे मामलों पश्चात् जैन धर्मावलम्बियों की संख्या में उनरोमर ह्रास होता बनाया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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