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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [ प्राचारांग उसी प्रकार आचारांग का द्वितीय श्रतस्कन्ध भी द्वादशांगी का अभिन्न अंग होने के कारण अर्थतः तीर्थकरप्रणीत और शब्दतः गरगधरों द्वारा ग्रथित है । उपयुल्लिखित प्रमाणों के अतिरिक्त अन्य आगमों में भी इस प्रकार के उल्लेख उपलब्ध हैं जिनसे इस तथ्य की पुष्टि होती है । "प्रश्नव्याकरण सूत्र" में जिस स्थल पर यह विवेचन आया है कि अमुकअमुक प्रकार का सावद्य आहार ग्रहण करना साधु को नहीं कल्पता, वहां शिष्य ने प्रश्न किया है- "तो फिर किस प्रकार का आहार ग्रहण करना कल्पता है ?" इस प्रश्न के उत्तर में आचारांग के दशवें, तदनुसार द्वितीय श्रुतस्कन्ध के पहले पिण्डपात अध्ययन का उल्लेख करते हुए बताया गया है - “ 'पिण्डपात' अध्ययन के ११ उद्देशकों में जो आहार ग्रहण करने की निर्दोष विधि बताई गई है उसके अनुसार साधु को प्राहार ग्रहण करना चाहिये।'' “स्थानांग सूत्र" चतुर्थ स्थान में प्राचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के शय्या, वस्त्रैषणा, आदि चार अध्यायनों में वर्णित विषयों का तथा सातवें स्थानक में प्राचारांग - द्वितीय श्रुतस्कन्ध के सात सप्तैकका अध्ययनों तथा पिण्डेषण आदि का उल्लेख किया गया है । 'दशवकालिक सूत्र' का 'छज्जीवणिकाय' नामक चौथा अध्ययन प्राचारांग द्वितीय श्रुतस्कन्ध के भावना नामक पन्द्रहवें अध्ययन के आधार पर निर्मित किया गया है । दशवकालिक का 'पिण्डैषणा' नामक पांचवां अध्ययन तो वस्तुतः प्राचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 'पिण्डेषणा' नामक प्रथम अध्ययन का सुगठित रूपान्तर है। दोनों प्रागमों के इन अध्ययनों का नामसाम्य और विषयसाम्य इस तथ्य के सबल साक्षी हैं कि दशवैकालिक के संकलयिता अथवा निर्माता - प्राचार्य सय्यंभव (भ० महावीर के चतुर्थ पट्टधर) के समक्ष आचारांग का द्वितीय श्रुतस्कन्ध विद्यमान था। इसी प्रकार दशवकालिक सूत्र का 'सुवक्कसुद्धी' नामक सातवां अध्ययन भी प्राचारांग - द्वितीय श्रृतस्कन्ध के 'भाषेषणा' नामक चतुर्थ अध्ययन का पद्यानुवाद प्रतीत होता है । अल्पायुष्क मणकमुनि के हित को दृष्टि में रखते हुए आचारांग के द्वितीय श्रुत अथवा पूर्वो के आधार पर प्रा० सय्यंम्भव ने “दशवकालिक सूत्र" का ग्रथन किया अतः वह प्राचाय सय्यंभव की रचना माना जाता है। नियुक्तिकार के कथनानुसार यदि शिष्यों के हित के लिए किसी स्थविर ने आचारांग के द्वितीय ' अह केरिसयं पुणाइ कप्पइ ? जं तं इक्कारस पिंडवायसुद्धं ....... [प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार ५] २ चत्तारि सेज्जापडिमाग्रो प० चत्तारि वत्थपडिमानो प० चत्तारि पायपडिमाग्रो प० . चत्तारि ठाणपडिमाग्रो प० ।।४२४।। [स्थानांग, ठा० ४।३] ३ मत्त पिडेमग्गाग्रो प० ६६३। सत्त पागोसणाग्रो प० ।६६४ । सत्त उग्गहपडिमाग्रो प० ।।६६५।। सत्त सत्तिक्कया प० ।।६६६ स्थानांग, स्थान ७] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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