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________________ प्रतियोष पौर दीक्षा ग्रहण केवमिकाम : पायं सुधर्मा स्वयं द्वारा चिरपोषित, चिरपरिपालित परंपरा की अनुपादेयता पोर प्रयचाता का ज्यों ही उन्हें बोध होता है वे तत्काल उसका सदा के लिये उसी प्रकार परित्याग कर देते हैं जिस प्रकार कि सांप प्रपनी केंचुल का। "तातस्य कूपोऽयमिति ब्रुवाणाः, क्षारं जलं कापुरुषा पिवन्ति" इस उक्ति के अनुसार कदाग्रही कायर व्यक्ति ही अपनी रूढ़ मान्यता को सदोष समझ कर भी उससे चिपटे रहते हैं। सत्योपासक एवं तस्वदर्शी पुरुषों की यह विशेषता होती है कि वे सत्य का दर्शन होते ही तत्काल निर्मीकता के साथ असत्य का परित्याग कर सत्य को प्रात्मसात् कर लेते हैं। आर्य सुधर्मा पूर्वाग्रहों से परे, सत्य के परमोपासक और प्रबुद्धचेता विद्वान् थे। उन्होंने प्रभु द्वारा अपनी प्रार्थना के स्वीकृत होते ही भगवान् महावीर के करकमलों से श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। प्रार्य सुषर्मा के साथ उनके ५०० शिष्यों ने भी सत्य मार्ग को पहिचाना और अपने शिक्षा-गुरु के पदचिन्हों पर चलते ए श्रमणधर्म स्वीकार कर प्रभुचरणों में अपना जीवन समर्पित कर दिया। बीमा के पश्चात मार्य सुधर्मा जिस समय प्रार्य सुधर्मा ने भगवान् महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण की, उस समय उनकी आयु ५० वर्ष थी। वे वंय में भगवान् महावीर से लगभग ८ वर्ष बड़े थे । वेद-वेदांगादि के धुरंधर विद्वान होने के साथ-साथ वे पूर्ण अनाग्रही भी थे। उनकी बुद्धि पर्याप्तरूपेणं परिपक्व हो चुकी थी पर वे बड़े जिज्ञासु वृत्तिके विद्वान् थे। महान् अतिशयों से युक्त सर्वज्ञ-सर्वदर्शी तीर्थंकर महावीर को गुरुरूप में पा कर उनकी जिज्ञासु-वृत्ति बड़े वेग के साथ जागृत हो उठी। - गौतम प्रभृति अन्य गणधरों के साथ-साथ प्रार्य सुधर्मा ने भी एकाग्र चित्त हो जब भगवान् महावीर से त्रिपदी का ज्ञान सुना तो वे अथाह ज्ञान के भण्डार बन गये । सभी गणधरों ने प्रभु के मुख से सुने उपदेश के आधार पर सर्वप्रथम चतुर्दश पूर्वो की रचना की और तदनन्तर एकादशांगी का प्रथन किया। चतुर्दश पूर्व जो पहले संस्कृत भाषा में थे, वे काल-प्रभाव से विच्छिन्न हो गये हैं। भाज जो प्राचारांगादि एकादशांग उपलब्ध होते हैं, वे आर्य सुधर्मा की वाचना के ही माने जाते हैं।' ___ जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, सर्वज्ञ प्रभु महावीर ने ग्यारहों गणधरों द्वारा द्वादशांगी की रचना के पश्चात् मार्य सुधर्मा को अपने पंचम 'यदिति श्रुतमस्माभिः, पूर्वेषां सम्प्रदायतः । चतुर्दशापि पूर्वाणि, संस्कृतानि पुराभवन् ।।११३।। प्रजातिशय साध्यानि, तान्युच्छिन्नानि कालतः । प्रधुनकादशांग्यस्ति, सुधर्मस्वामिभाषिता ।।११४।। [प्रभावक परित्र, ८, स्वादिसूरिवरित्र, पृ० ५८] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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