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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रज्ञा० प्रौर षट्खण्डागमे दिगम्बर परम्परा के लब्ध प्रतिष्ठ विद्वान डॉ० हीरालाल जैन और श्रीपादिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये ने षट्खण्डागम, प्रथम खण्ड के द्वितीय संस्करण के अपने सम्मिलित सम्पादकीय में - "प्रार्य श्याम ही पन्नवरणा सूत्र के रचनाकार है" - इस तथ्य को संदेहास्पद सिद्ध करने का प्रयास करते हुए लिखा है :--
.........."उन दोनों प्रक्षिप्त गाथानों में पन्नवणा सूत्र का नाम भी नहीं माया । जिस श्रुतरत्न का दान श्यामाचार्य ने दिया उससे किसी अन्य ग्रन्थरत्न का भी तो अभिप्राय हो सकता है। यदि हरिभद्राचार्य ने भी इन गाथाओं को प्रक्षिप्त कह कर टीका की है, तो इससे इतना मात्र सिद्ध हया कि उनके समय अर्थात् प्राठवीं शती में श्यामाचार्य की ख्याति हो चुकी थी। किन्तु इससे पूर्व कब व किसके द्वारा वे गाथाएं जोड़ी गईं, इसके क्या प्रमाण हैं। उन गाथानों में श्यामाचार्य को वाचक वंश का तेइंसवां पुरुष कहा है । यह वंश कब प्रारम्भ हुआ पौर उसकी तेईसवीं पीढ़ी कब पड़ी, इसका लेखा-जोखा कहां है ? उनसे पूर्व ग्रन्थ की अंगभूत गाथा में तो स्पष्ट कहा गया है कि पण्णवणा का उपदेश भगवान् जिनवर ने भव्य जनों की निवृत्ति हेतु किया था, जब कि प्रक्षिप्त गाथाओं में दुर्धर धीर व समृदबुद्धि मुनि श्यामाचार्य द्वारा किसी अनिर्दिष्ट श्रुतरत्न का दान अपने शिष्यगण को दिया गया। क्या प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्त्तत्व के विषय में मूल और प्रोप की मान्यता एक ही कही जा सकती है ।'' .. डॉ. द्वय की प्रथम तीन और अंतिम, इन चार दलीलों में तो वस्तुतः कोई मनहीं है। क्योंकि उपर्युक्त दो गाथाएं पन्नवरणा सूत्र की मूल गाथाओं के बीच
जोड़ी गई हैं तथा तीसरी गाथा के चतुर्थ चरण में ग्रन्थकार द्वारा अपने लिये प्रयुक्त - "अहमवि तह वण्णइस्सामि" को पूर्णतः स्पष्ट करने वाली हैं कि यह "महमवि" कहने वाले प्राचार्य श्याम ही हैं, अन्य कोई नहीं । मूल गाथानों के बीच में दी हुई इन गाथात्रों को पढ़ते ही साधारण से साधारण पुरुष को भी सहज ही यह ज्ञात हो जाता है कि निश्चित रूप से पन्नवणा सूत्र को उद्दिष्ट कर ही ये गाथाएं यहां रखी गई हैं और प्रार्य श्याम ने इसी ग्रन्थरत्न पन्नवणा सूत्र का अपनी शिष्य-प्रशिष्य सन्तति को दान दिया है । यदि ये दोनों गाथाएं पन्नवरणा सूत्र की मूल गाथाओं के बीच में न होकर अन्यत्र कहीं फूटकर रूप में होती तो सम्पादक द्वय की इन दोनों दलीलों में बड़ा महत्वपूर्ण वजन होता।
तीसरी दलील का सीधा सा उत्तर इस प्रकार हो सकता है - हरिभद्राचार्य को पनवणा की टीका करते समय मूल पन्नवरणासूत्र की जो प्रतियाँ मिलीं वे उनके समय से कम-अज-कम ४००-५०० वर्ष पुरानी तो सुनिश्चित रूपेण होंगी स्योंकि आज भी कतिपय आगमों की ८००-६०० वर्ष पुरानी प्रतियां अनेक प्रत्यागारों-ग्रन्थभण्डारों में विद्यमान हैं। जब प्राचार्य हरिभद्र को अपने समय से ४००-५०० वर्ष पुरानी प्रतियों में उपरिलिखित २ गाथाएं मिलीं और इन्हें 'पट्खण्डागम प्रथम खंड, द्वितीय संस्करण, सम्पादकीय, पृ० ८
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