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________________ ७५६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [साम्बी परम्परा है" - इस लोकोक्ति के अनुरूप उसने मन में सहसा अपनी अपार सम्पदा के साथ प्रार्य बंज से सौदा करने का निश्चय किया। वह सौ करोड़ (एक परब) मुद्राएं और वस्त्राभूषणादि से अलंकृता अपनी पुत्री को साथ ले वज स्वामी के पास पहुंचा।' धन श्रेष्ठि ने अभिवादनपूर्वक वज्र स्वामी से निवेदन किया- "नाय! मेरी यह पुत्री अपने प्राणनाथ के रूप में प्रापका वरण कर चुकी है। प्रतःप्राप कृपा कर मेरी इस अनुपम रूप-लावण्य-यौवन संपन्ना पुत्री को ग्रहण कीजिये । इसके साथ ये एक अरब मुद्राएं भी ग्रहण कीजिये । जीवन पर्यन्त प्राप स्वेच्छा . पूर्वक सभी प्रकार के सांसारिक सुखोपभोगों का प्रानन्द लें, तो भी यह धनराशि समाप्त नहीं होगी।" यह कह कर श्रेष्ठि धन महर्षि वन के चरण कमलों पर अपना मस्तक रख प्रभीष्ट उत्तर की प्राशा लिये उनके मुखकमल की मोर उत्कण्ठा पूर्वक देखने लगा। ___ प्रार्य वज़ ने सहज शान्त स्वर में कहा - "श्रेष्ठिन् ! तुम अत्यधिक सरल और बड़े भोले हो, जो स्वयं संसार के बंधनों में बंधे रहने के कारण, भव-प्रपंच से बहुत दूर जो लोग हैं, उन्हें भी बांधना चाहते हो। जिस प्रकार कोई मुषामुग्ध व्यक्ति धूलि के ढेर के बदले में रत्नों की राशि, तृण के बदले में कल्पवृक्ष, कोए के बदले में हंस, भील की झोंपड़ी के बदले में देवविमान और क्षारयुक्त जल के बदले में अमृत के क्रय करने का मूर्खतापूर्ण व्यर्थ प्रयास करता है, ठीक उसी प्रकार तुम भी अपने इस तुच्छ कुधन द्वारा मुझे गरलोपम विषयभोगों का रसास्वादन कराने के बदले में परमात्मपद-प्रदायी मेरा तप-संयम मुझ से छीनना चाहते हो । क्षणिक विषय-सुख घोर दुखानुबन्धी और अनन्तकाल तक विकट भवाटवी में भटकाने वाले हैं । शाश्वत शिवसुख की तुलना में संसार का समस्त धन बालुकरण तुल्य है । यदि तुम्हारी यह पुत्री अन्तर्मन से वस्तुतः अनुरक्त हो मेरे शरीर की छाया के समान मेरा अनुसरण करना चाहती है तो सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन और सम्यक्चारित्र रूप मेरे द्वारा ग्रहण किये हए महाव्रतों को अंगीकार कर शाश्वत सुखप्रदायी श्रेयस्कर साधनापथ पर अग्रसर हो प्रात्मकल्याण में निरत हो जाय।" जिस प्रकार गले से नीचे उतरते ही अमृतकण घातक से घातक विष के प्रभाव को नष्ट कर देता है, ठीक उसी प्रकार शाश्वत सुख और सुखाभास का वास्तविक बोध कराने वाले आर्य वज्र के हितकर वचनों को सुनते ही कुमारी रुक्मिणी के मन, मस्तिष्क और नेत्रों पर छाया हुआ मोह का नशा तत्क्षण उतर गया। उसने अनुभव किया कि उसके अन्तर में प्रकाश की एक किरण प्रकट हुई है, जो शनैः शनैः तेज होती हई उसके हृदय में व्याप्त निबिड़तम अन्धकार को उजाले के रूप में परिवर्तित कर रही है। उसे लगा, जैसे उसकी प्रांखों पर पड़ा आवरण दूर हो गया है और उसके परिणामस्वरूप उसे समस्त दृश्यमान जगत् बदला हुआ सा, परिवर्तित स्वरूप में दृष्टिगोचर हो रहा है। उसे समस्त एहिक सुख-विषय-कषाय आदि विष तुल्य हेय प्रतीत होने लगे। कुछ ही क्षणों पहले . प्रभावक चरित्र, श्लोक संख्या १३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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