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________________ साध्वी-परम्परा] सामान्य पूर्वधर-काल : देवदि क्षमाश्रमण ७५ प्रखण्ड ब्रह्मचर्य के प्रत्यद्भुत तेज में देदीप्यमान मार्य वज के सौम्य, सान्त एवं नयनाभिराम मुखमण्डल को निनिमेश नयनों से निहारता हुमा जनसमुद्र पाप्यायित हो उठा। गणाचार्य प्रार्य वज के धनरव-गम्भीर निर्घोष से प्रवाहित सुधा-सुरसरी तुल्य श्रुतसरिता में निमज्जन-उन्मज्जन करते हुए उपस्थित मावालवृद्ध ने एक अलौकिक तथा प्रनिर्वचनीय प्रानन्द की अनुभूति की। . कुमारी रुक्मिणी की मोहविमुग्ध दृष्टि ने प्राय वज़ को एक और ही रूप में देखा। मोह के प्राबल्य से वह सम्मोहित हो गई। उसने क्षण भर में ही अपने एहिक सुख के एक नवीन रंगीन-संसार की कल्पना कर ली। योग-मार्ग के महान् पथिक पार्य वज रुक्मिणी को अपने भोग-मार्ग के माराध्य देव प्रतीत हुए। उसने मन ही मन मार्य वज का अपने पति के रूप में वरण करते हुए दृढ़ प्रतिज्ञा कर डाली कि वह मार्य वज को छोड़ अन्य किसी के साथ प्रणय-सूत्र में नहीं बंधेगी । मोह ने उसके मन, मस्तिष्क पौर रोम-रोम पर अधिकार कर लिया था मतः वह यह सोच ही नहीं सकी कि अपनी इस प्रतिज्ञा द्वारा वह अमृत के देवता को गरल-पान का निमन्त्रण देना, मनन्त प्राकाश को मुट्ठी में बन्द करना और समुद्र की प्रथाह जलराशि को अपनी मंजलि में समा देना चाहती है। मोह का मावरण पड़ने पर मन, मस्तिष्क और दृष्टि की गति बड़ी विचित्र हो जाती है। रुक्मिणी उस समय भला इस प्रकार कैसे सोचती, जब कि उसके तन मन पर मोह छाया हुमा था। - मार्य वज के दर्शन एवं उपदेश-श्रवण के पश्चात् भावविभोर जनसमूह मुनि-परणों में मस्तक का शनैः-शनैः पाटलीपुत्र की मोर उसी प्रकार लौट गया, मानो ज्वारभाटे की समाप्ति के अनन्तर पूणिमा के चन्द्र की किरणों से प्राप्यापित-सृप्त सागर पुनः अपनी सीमा में सिमट गया हो। 'कुमारी रुक्मिणी भी गहन विचारों में डूबती-उतराती, कल्पना के अनेक मनोहारी रंगीन चित्र चित्रित करती हुई, भारी मन लिये अपने घर लौटी । उसके हृदय में प्रबल वेग से उद्भूत हई मार्य वज्र की चरणचबरी बनने की तीव्र उत्कण्ठा ने एक एक क्षण का विलम्ब भी उसके लिये एक एक युग के समान भारी बना डाला था। अन्तर की ज्वालाओं के शमन का और कोई उपाय न पा, लाचार हो उसने लोकलाज को एक प्रोर रख स्वयं अपने पिता के पास जाकर अपना यह दृढ़ संकल्प रखा- "मैं प्रार्य वज्र को प्रारणपण से अपना प्राराध्यदेव पुन चुकी है। यदि उनके साथ मेरा प्रणयसूत्र में गठबन्धन संभव नहीं हुआ तो में अग्नि में प्रवेश कर प्रात्मदाह कर लूंगी।' __ श्रेष्ठि धन प्रपनी इकलौती पुत्री की कठोर प्रतिज्ञा सुनते ही क्षण भर के लिये प्रवाक रह गया। "वणिक सभी वस्तुएं अपनी तराजू और बाटों से तोलता 'बमाचे जनकं स्वीयं, सत्यं मद्भाषितं शृणु । भीमरणाय मां पन्छ, शरणं मेऽन्यणनलः ।। १३८ ।। [प्रभावक चरित्र, पृ० ६] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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