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________________ गया है कि प्रभु को केवलज्ञान होते ही तत्काल उस स्थान पर समवसरण, तीर्थ प्रवर्तन आदि की प्रक्रियाएं क्यों न पूर्ण हुई । श्वेताम्बर परम्परा के पागम स्थानांग में प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल के १० प्राश्चर्यों का उल्लेख है। भगवान महावीर ने केवलज्ञान की उपलब्धि होते ही भिका ग्राम के बाहर देवताओं द्वारा निर्मित समवसरण में जो प्रथम देशना दी उसके परिणाम स्वरूप उसी दिन नियमतः धर्म-तीर्थ की स्थापना हो जानी चाहिए थी। परन्तु ऐसा न होकर दूसरे दिन पावापुरी के महासेन उद्यान में निर्मित समवसरण में प्रभु द्वारा देशना एवं तीर्थ की स्थापना की गई, इस घटना की भी उन १० आश्चर्यों में गणना की गई है।' दिगम्बर परम्परा के अन्यों में इस प्रकार का कोई उल्लेख न होने, कैवल्योपलब्धि और तीर्थप्रवर्तन के बीच व्यवधान विषयंक मतभिन्य तथा घटना के चित्रण में वैविध्य होने के कारण स्थिति बड़ी अस्पष्ट, अनिश्चित एवं विवादस्पद सी प्रतीत होती है। प्राशा है शोधप्रिय विद्वान् इस पर गम्भीर अन्वेषण के पश्चात् समुचित प्रकाश डालेंगे। इस प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक विचार करते समय इस तथ्य को दृष्टि में रखना परमावश्क होगा कि दिगम्बर परम्परा के हरिवंश पुराण आदि सभी मान्य ग्रन्थों में स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान महावीर को छोड शेष ऋपभदेव प्रादि तेवीसों ही तीर्थकरों ने उसी दिन धर्म-तीर्थ का प्रर्वतन किया, जिस दिन कि उन्हें केवलज्ञान की उपलब्धि हुई। कल्पसूत्र एवं नन्दी सूत्र की स्थविरावलियों की परम प्रामाणिकता:आज सभी विद्वान समवेत स्वर में स्वीकार करते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा की २ स्थविरावलियां कल्पसूत्रीया स्थविरावली और नन्दी स्थविरावली (जिनको मूल प्राधार मान कर प्रस्तुत ग्रन्थ का पालेखन किया गया है), पूर्णतः प्रामाणिक विश्वसनीय एवं अति प्राचीन ऐतिहासिक स्थविरावलियां हैं। मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई से निकले ई. सन् ८३ से १७६ तक के, (मायागपट्टों, ध्वजस्तम्भों, तोरणों, हरिणगमेषी देव की मूर्ति, सरस्वती की मूर्ति, सर्वतोभद्र प्रतिमाओं, प्रतिमापट्टों एवं मूर्तियों की चौकियों पर उटंकित) शिलालेखों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वस्तुतः ये दोनों स्थविरावलियां अति प्राचीन ही नहीं, प्रामाणिक भी हैं। मथुरा के कंकाली टीले की खुदाई का कार्य सर्व प्रथम ई. सन् १८७१ में जनरल कनिंघम के तत्त्वावधान में, दूसरी बार सन् १८८८ से १८९१ में उसग्ग गन्भहरणं, इथितित्थं प्रभाविया-परिसा । कण्ठस्स अवरकंका. उत्तर चंट-सराण ॥ हरिवंसकुलुप्पत्ती, चमरुप्पातो तह अट्ठसय सिद्धा। अस्संजतेसु पूषा, दस वि अणंतेण कालेण ॥ [स्थानांग, स्थान १०] विशेष विवरण के लिये देखिये, 'जैन धर्म का मौलिक इतिहास, भाग १", पृ. ३४४ -३४६ -सम्पादक ( ३२ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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