SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [५२७ के साथ दीक्षा दिया है । वह प्रशंसनीय है। बहुत से लोग सिंह के समान व्रत लेकर शृगालवत् कायरतापूर्वक संयम का पालन करते हैं । कुछ व्यक्ति शृगाल की तरह डरते हुए संयम ग्रहण करते हैं और उसका पालन भी शृगाल की ही तरह कायरतापूर्वक करते हैं । कुछ लोग ऐसे भी हैं जो शृगाल के समान डरते हुए संयम ग्रहरण करते हैं किन्तु संयम ग्रहण करने के पश्चात् सिंह के समान वीरता से संयम का पालन करते हैं । कुछ ऐसे भी पराक्रमी पुरुष होते हैं जो सिंह के समान पूरे साहस एवं उत्साह के साथ ही संयम ग्रहण करते और उसी प्रकार पूर्ण साहस और पराक्रम के साथ जीवन भर संयम का पालन करते हैं । आप लोगों को चाहिये कि जिस प्रकार सिंह के समान साहसपूर्वक संयम ग्रहण किया है उसी प्रकार सिंह तुल्य पराक्रम प्रकट करते हुए ही जीवन भर संयम का पालन करते रहें जिससे कि आप लोगों को शीघ्र ही परमपद निर्वाण की प्राप्ति हो सके । जीवन के प्रत्येक क्षरण को अमूल्य समझते हुए प्रमाद का पूर्णतः परिहार कर अपने जीवन की प्रत्येक क्रिया में पूरी तरह यतना रखिये जिससे कि आप पाप-बन्ध से बचे रह सकें । वस्तुतः प्रमाद साधक का सबसे बड़ा शत्रु है । चतुर्दश पूर्वधर, प्रहारक लब्धि के धारक, मनः पर्यवज्ञानी और रागरहित बड़े-बड़े साधक भी प्रमाद के वशीभूत हो जाने पर देव, मानव, तिथंच और नारक गति रूप दुःखपूर्ण संसार में भटकते रहते हैं ।" " जम्बूकुमार सहित सभी नव दीक्षितों ने अपने श्रद्धेय गुरु सुधर्मा स्वामी के उपर्युक्त उपदेश को शिरोधार्य किया और वे ज्ञानार्जन एवं तपश्चरण के साथ साथ श्रमणाचार का बड़ी दृढ़ता से पालन करने लगे । महामेधावी जम्बू अरणगार ने अहर्निश अपने गुरु सुधर्मा स्वामी की सेवा में रहते हुए परम विनीत भाव से बड़ी लगन, निष्ठा और परिश्रम के साथ सूत्र, अर्थ और विवेचन - विस्तारसहित सम्पूर्ण द्वादशांगी का ज्ञान प्राप्त करना प्रारम्भ किया । कूरिक की जिज्ञासा कालान्तर में सुधर्मा स्वामी ने अपने जम्बू आदि शिष्य परिवार सहित राजगृह से विहार किया और विभिन्न क्षेत्रों में प्रगणित भव्यात्मानों के अन्तर्मन को उपदेशामृत से निर्मल बनाते हुए एक दिन वे चम्पानगरी के "पूर्णभद्र" चैत्य में पधारे । उद्यानपाल के माध्यम से सुधर्मा स्वामी के शुभागमन की सूचना प्राप्त होते ही मगधाधिपति कूणिक अपने पुरजन - परिजन आदि सहित अपने राज्योचित वैभव के साथ उनके दर्शन एवं उपदेश श्रवरण के लिए उद्यान में पहुँचा । उद्यान के द्वार पर ही अपने वाहन, खङ्ग, छत्र, चामर एवं समस्त राज्य चिह्न तथा पुष्पमाला मोजड़ी आदि का परित्याग कर सुधर्मा स्वामी की सेवा में दसपुष्वी, श्राहारगावि मरणनारंगी विरागा य । होंति पमायपरवसा, तयणंतरमेव चउगइना ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only [ स्थानांग ] www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy