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________________ प्राय जम्बू के माता-पिता] केवलिकाल : प्रायं जम्बू २०३. भगवान् महावीर के पंचम गणधर आर्य सुधर्मा का वैभारगिरी पर पदार्पण हुआ । राजगृह नगर के नर-नारियों के समूह मार्य सुधर्मा के दर्शनार्थ वैभारगिरी की ओर उमड़ पड़े। श्रेष्ठी ऋषभदत्त भी अपनी पत्नी धारिणी के साथ सुधर्मा के दर्शनार्थ वैभारगिरी की ओर प्रस्थित हुए। मार्ग में उन्हें जसमित्र नामक एक निमित्तज्ञ श्रावक मिले जो ऋषभदत्त के परम मित्र थे। निमित्तज्ञ जसमित्र ने क्षेम कुशल के समाचारों के आदान-प्रदान के अनन्तर ऋषभदत्त से पूछा - "मित्रराज भाभी का मुख प्रगाढ़ चिन्ता से संतप्ता के समान श्यामल किस कारण हो रहा है ?" "तुम ही अपनी भाभी से पूछ लो" - ऋषभदत के मुख से अपने प्रश्न का यह उत्तर सुनकर 'जसमित्र' ने धारिणी से उसकी चिन्ता का कारण पूछा। धारिणी ने अपनी आन्तरिक चिन्ता को हंसी की अोट में छपाने का प्रयास करते हुए कहा - "देवर ! तुम्हारा निमित्तज्ञान बड़ा अद्भुत है। यह कैसी निमित्तज्ञता कि पूछने पर ही तुम्हें दूसरे के मन की वात विदित होती है ? इस प्रकार तो प्रत्येक व्यक्ति अपने पापको निमित्तज्ञ कहला सकता है। मेरे मन की बात तुम अपने निमित्तज्ञान से विचार कर ही वताओ तब मैं समझू कि वास्तव में मेरा देवर निमित्तज्ञ है।" अपनी प्रिय कला पर परिहास के तीखे प्रहार से जसमित्र का अन्तर्मन सहसा तड़प उठा। अपने निमितज्ञान का चमत्कार बताने की जस मित्र के मन में एक प्रबल लहर उठी। कुछ ही क्षणों के गणन-चिन्तन के पश्चात् उसने बड़ी दृढ़तापूर्वक गम्भीर स्वर में कहा “भाभी ! • आप पुत्रवती नहीं हैं अतः उत्तम पुत्र को जन्म देने की अभिलाषा लिये अापका चित्त रातदिन प्रगाढ़ चिन्ता से संतप्त रहता है। सिद्धिप्रदायक शकुन हो रहा है । अव आपका मनोरथ सफल होने वाला है। आपकी कुक्षि से एक महान् प्रतापी पुत्र का जन्म होगा, जो हमारे इस भरत क्षेत्र का अन्तिम केवली होगा। आप स्वप्न में एक मूछों वाले सिंह को शीघ्र ही देखेंगी। उससे आपको मेरे कथन पर और अपनी कार्य-सिद्धि पर विश्वास हो जायगा। भाभी ! आपके इस कार्य में एक छोटा सा अंतराय-विघ्न अवश्य है, वह किसी देवता की आराधना से दूर हो सकता है। पर वह देव कौन सा है यह मैं नहीं जानता।" जसमित्र द्वारा की गई भविष्यवाणी को सुनकर हर्षातिरेक से इभ्यपत्नी धारिणी का मन-मयूर नाच उठा। वह जसमित्र से बातें करती हुई ऋशभदत्त के साथ उपवन में पहुँची जहां सुधर्मा स्वामी विराजमान थे । ऋषभदत्त जसमित्र और धारिगी ने श्रद्धावनन हो भक्तिपूर्वक सुधर्मा स्वामी को वन्दन-नमन किया और तत्पश्चात् यथास्थान बैठकर सुधर्मा स्वामी का उपदेश सुनने लगे। उपदेश श्रवण करते गमय धारिगगी ने मन ही मन सुधर्मा म्वामी से पूछने का विचार किया कि उमे पुत्र प्राप्ति में हो रही अलगय को दूर करने के लिए किस देव को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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