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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [पाचारांग उन नवब्रह्मचर्याध्ययनों में से, उक्त, अनुक्त अथवा संक्षेप से कही गई बातों को लेकर द्वितीय श्रुतस्कन्धरूप प्राचाराग्र की विस्तारपूर्वक रचना की।' नियुक्तिकार और टीकाकार के इस कथन से यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि महापरिज्ञा अध्ययन के सात उद्देशकों में. जिन विषयों का विवेचन विवक्षित था अथवा जिन विषयों का संक्षेपतः उल्लेख किया गया उन्हीं सातों अध्ययनों में प्रतिपादित विषयों के आधार पर प्राचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध की द्वितीया चूला के सात अध्ययनों की रचना की गई। इसका सीधा सा अर्थ यह हुआ कि द्वितीया चूला के सात अध्ययनों में जो विषय हैं वे तो कम से कम, संक्षेपतः अवश्य ही महापरिज्ञा अध्ययन के सात उद्देशकों में प्रतिपादित किये गये थे। महापरिज्ञा अध्ययन में मंत्र-विद्या ___ यद्यपि प्राचारांग नियुक्ति, शीलांककृत प्राचारांग टीका, जिनदास गणि द्वारा रचित आचारांग रिण और अन्य प्रागमिक ग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता पर पारम्परिक प्रसिद्ध जनश्रुति के आधार पर यह मान्यता चली आ रही है कि प्राचारांग सूत्र के "महापरिज्ञा" अध्ययन में अनेक मन्त्रों और वड़ी महत्वपूर्ण विद्याओं का समावेश था। उन मन्त्रों और विशिष्ट विद्यानों का स्वल्प सत्व, धैर्य एवं गाम्भीर्य वाले साधक कहीं दुरुपयोग न कर लें इस जनहित की भावना से पूर्वकाल के प्राचार्यों ने अपने शिष्यों को इस अध्ययन की वाचना देना बन्द कर दिया और इसके परिंगामस्वरूप शनैः शनैः कालक्रम से महापरिज्ञा अध्ययन विलुप्त हो गया। इस परम्परागत प्रसिद्ध जनश्रुति को एकान्ततः अविश्वसनीय किंवदन्ती की गगाना में भी नहीं रखा जा सकता क्योंकि आचार्य वज्रस्वामी ने महापरिज्ञा अध्ययन से आकाशगामिनी विद्या की उपलब्धि की, इस प्रकार का उल्लेख अनेक ग्रन्थों में आज भी उपलब्ध होता है ।२ आचारांग रिणकार ने लिखा है - "विना प्राज्ञा, विना अनुमति के. महापरिज्ञा अध्ययन ' (क) अायाराउ अत्थो पायारग्गेसु पविभत्तो ।।३।। [प्राचारांग-नियुक्ति, श्रुतस्कंध २] (ख) तत्राद्ये श्रुतस्कन्धे नववर्याध्ययनानि प्रतिपादितानि तेषु च न समस्तोऽपि विवक्षि तोऽर्थोऽभिहितो... 'संक्षेपोक्तस्य प्रपंचाय तदप्रभूताश्चतस्र-चूड़ा... शिष्यहितं भवत्विति कृत्वा अनुग्रहार्थ तथा अप्रकटोऽर्थ प्रकटो यथास्यादित्येवमयं च कुतो निव्यूंट: ? याचारात सकाशात् समस्तोऽप्यथं प्राचाराग्रेषु विस्तरेण प्रविभक्त इति । शीलांकाचार्यकृत टीका, श्रु० २, पृ० ४] २ (क) जेगुरिया विज्जा, ग्रागामगमा महापरिन्नाग्रो । वंदामि ग्रज वडर, अपच्छिमो जो सुप्रधराग ।। ७६६॥ यावश्यक मलय, उपोद्घात, पृ० ३६० (१)] (ब) महापरिज्ञाध्ययनाद, ग्राचारांगातरस्थितात् । श्री वज्र गणोद्धता विद्या तदा गगनगामिनी ।। १४८॥ (प्रभावक चरित्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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