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________________ ६७ भाचारांग केवलिकाल : मार्य सुधर्मा नहीं पढ़ा जाता (था)।" इससे भी थोड़ा आभास होता है कि महापरिज्ञा अध्ययन में कुछ इस प्रकार की विशिष्ट बातें थीं जिनका बोध साधारण साधक के लिये वर्जनीय था। माठवां अध्ययन पाठवें अध्ययन के दो नाम हैं विमोक्ष और विमोह । इसके मध्य में "इच्चेयं विमोहाययणं" तथा "अणुपुम्वेण विमोहाई" और अन्त में-"विमोहन्नयरं हियं"- इन पदों में विमोह शब्द का प्रयोग होने के कारण संभवतः इस अध्ययन का नाम विमोह अध्ययन रखा गया हो। अर्थतः इन दोनों शब्दों में कोई विशेष अन्तर प्रतीत नहीं होता क्योंकि विमोक्ष का अर्थ है सब प्रकार के संग से पृथक् हो जाना और विमोह का अर्थ है मोह रहित होना। इस अध्ययन में ये दोनों शब्द समस्त ऐहिक संसर्गों के परित्याग के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं। इस अध्ययन के प्रथम उद्देशक में श्रमणों के लिये निर्देश है कि वे अपने से भिन्न आचार, भिन्नं धर्मवाले साधुओं के साथ न प्रशन-पान करें और न वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपुंछनक, निमन्त्रण, आदर-समादर, सेवा-शुश्रूषा आदि का आदानप्रदान ही करें। इसमें सदा सब प्रकार के पापों से बचते रहने के आदेश के साथ कहा गया है कि विवेकपूर्वक सब पाप-कर्मों को सम्यकपेण समझते हुए किसी भी दशा में पाप न करना ही वास्तविक धर्म है। द्वितीय उद्देशक में साधु को यह उपदेश दिया गया है कि वह अकल्पनीय वस्तु को किसी भी दशा में ग्रहण न करे मोर उस प्रकार की स्थिति में यदि कोई गृहस्थ अप्रसन्न हो कर ताड़न-तर्जन प्रादि भयंकर कष्ट भी दें तो साधु शान्तचित्त और समभाव से उन परीषहों को सहन करे। तीसरे उद्देशक में एकचर्या, भिक्षुलक्षण प्रादि का उल्लेख करने के पश्चात् कहा गया है कि यदि किसी साधु के शरीर-कम्पन को देख कर किसी गृहस्थ के मन में इस प्रकार की शंका उत्पन्न हो जाय कि कामोत्तेजना के कारण उसका शरीर कांप रहा है तो उस साधु को चाहिये कि उस गृहस्थ की उस शंका का समीचीन रूपेण समाधान करे । चौये उद्देशक में एक प्रभिग्रहधारी मुनि के वस्त्र, पात्र प्रादि की मर्यादा के उल्लेख के साथ साधु को निर्देश दिया गया है कि वह जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित मुनि की सचेलक तथा अचेलक अवस्थामों को समभावपूर्वक अच्छी तरह से जाने और समझे। इसमें साधक को निर्देश दिया गया है कि उन विषम परिस्थितियों में जब कि संयम की रक्षा सभी तरह से असंभव प्रतीत होने लगे अथवा स्त्री आदि का अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग उपस्थित होने पर उसे अपने संयम के भंग होने की पूरी संभावना हो तो उस प्रकार की विषम परिस्थितियों में वह विवेक एवं समभावपूर्वक प्राणों के मोह का परित्याग कर सहर्ष मृत्यु का बरण करे। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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