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________________ चत्यवास ] सामान्य पूर्वधर - काल : प्रायं रेवती नक्षत्र ६२७ "कुछ नासमझ लोग कहते हैं कि यह तीर्थंकरों का वेष है । इसे भी नमस्कार करना चाहिये । अहो ! धिक्कार है उन्हें । मैं अपने शिरः शूल की पुकार किसके आगे करू ?" " जिनवल्लभ ने अपने संघपट्टक की भूमिका में चैत्यवास का इतिहास. प्रस्तुत करते हुए लिखा है : - "वीर नि० सं० ८५० के लगभग कुछ मुनियों ने उग्रविहार छोड़ कर मन्दिर में रहना प्रारम्भ कर दिया । इनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ती गई और समयान्तर में वे बहुत प्रबल हो गये ।" . उन्होंने यह प्रतिपादन करना प्रारम्भ कर दिया कि वर्तमान काल के मुनियों का त्यों में रहना उचित है । उन्हें पुस्तकादि के लिये यथावश्यक द्रव्य भी रखना चाहिये ।” " यह भी कहा जाता है कि वि० सं० ८०२ में राहिलपुर पाटण के राजा बनराज चावड़ा द्वारा उनके गुरु शीलगुणसूरि ने यह ग्राज्ञा प्रसारित करवा दी कि उनके नगर अरण हिलपुर पाटण में चैत्यवासी साधुओं के अतिरिक्त अन्य वनवासी आदि साधु प्रवेश तक नहीं कर सकेंगे। उस अनुचित प्राज्ञा को निरस्त करवाने के लिये विक्रम सं० १०७४ में जिनेश्वर और बुद्धिसागर नामक दो विधिमार्गी विद्वान् साधुयों ने राजा दुर्लभदेव की सभा में चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया और तब कहीं पाटण में विधिमागियों का प्रवेश हो सका । विभिन्न प्राचीन ग्रन्थों के अवलोकन से ज्ञात होता है कि अल्पसंख्यक सुविहित मुनियों की विद्यमानता में भी चिरकाल तक चैत्यवासियों की प्रभुता बनी रही । फिर भी शासनप्रेमी सुविहित मुनियों ने शिथिलता का विरोध करते हुए सिद्धान्तानुगामी मार्ग पर अपने चरण जमाये रखे । जिनवल्लभ के पश्चात् आचार्य जिनदत्त एवं जिनपति और सौराष्ट्र में मुनिचन्द्र एवं मुनिसुंदर आदि विधिमार्गी विद्वान् मुनि भी अपनी रचनात्रों एवं उपदेशों के माध्यम से चैत्यवासियों के साथ टक्कर लेते रहे और अन्त में उन्होंने चैत्यवासियों को हतप्रभ कर दिया । विक्रम की १५वीं शताब्दी के पश्चात् यही चैत्यवास परिवर्तित हो कर यतिसमाज के रूप में दृष्टिगोचर होने लगा । श्वेताम्बर परम्परा की तरह दिगम्बर परम्परा में भी इसका प्रभाव स्पष्टतः दिखाई देता है । भट्टारकों की गादियां उस चैत्यवास श्रौर मठवास की ही प्रतिनिधि कही जा सकती हैं । प्राचार्य कुंदकुंद के "लिंगपाहुड़" से पता चलता है कि उस समय ऐसे भी जैन साधु थे जो गृहस्थों के विवाह जुटाते और कृषिकर्म, वाणिज्य श्रादि हिंसा-कर्म करते थे । चैत्यवास के समर्थक मुनि शिवकोटि ने अपनी रत्नमाला में मिला है , बाला वयंति एवं वेसो तित्यंकराण एसो बि । नमणिज्जो विद्धि महो, सिरसूलं कस्स पुक्करिमो || [ संबोधप्रकरण, गा० ७६ (जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा महमदाबाद द्वारा प्रकाशित ) } * जो जोडेज्ज विवाह, किसिकम्मवाणिज्जजीवनादं च । [मिय बाद] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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