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________________ १६. बैन धर्म का मालिक इतिहास-द्वितीय भाग [१०. पाहावागरण परराष्ट्र पर अधिकार करने के लोभवश अाक्रमण करने वाले राजा लोग, प्रश्वचोर, पशुचोर पोर दासचोर प्रादि के एतद्विषयक सभी उपक्रम चोरी की परिधि में सम्मिलित हैं। इसमें चोरी के उपकरणों और प्रकारों का भी विस्तारपूर्वक वर्णन के साथ-साथ छोटे-बड़े सभी तरह के चोरों का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि परद्रव्य-हारी अनुकम्पारहित एवं निर्लज्ज होते हैं। चोरी के अपराध में दिये जाने वाले कठोर दण्ड - ताडन, तर्जन, छेदन-भेदन, अंग घोटन, कारावास, बन्धन प्रादि का भी इसमें विस्तार सहित वर्णन है। इसके उपरान्त चोर्यकर्म के फलस्वरूप परलोक में नरक एवं तिथंच गति के अनेक प्रकार के दारुण दुःखों के परवश अवस्था में भोगने का भी इसमें उल्लेख किया गया है । इस अध्ययन के अन्त में बताया गया है कि चोर को इहलोक, परलोक में कहीं पर भी शान्ति नहीं मिलती। वह सदा भयभीत वना ना छूपकर इधर-उधर भटकता हुमा दुःखमय एवं प्रशान्त जीवन व्यतीत करता है। चौथे अध्ययन में चौथे अधर्म स्थान मैथुन-कुशील को जरा, मरण, राग, शोक विवर्द्धक और मोहवद्धि का प्रमुख कारण बताया गया है। इसके भी अब्रह्म प्रादि ३० नाम दिये गये हैं। मैथुन-कुशील की ग्रासेवना एवं प्रासक्ति में मोहमुग्धमति देव-देवी, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क आदि, मनुष्यों में चक्रवर्ती, वलदेव, वासुदेव, मांडलिक राजा, योगलिक मानव अादि अनुपम-अपार भोगसामग्री को सुदीर्घ काल तक भोग कर भी बिना तृप्ति के कराल काल के कवल बन जाते हैं। मैथुनासक्त नर दूसरे के धन, जीवन आदि का विनाश करने में, नहीं सकुचाते। हाथी, घोड़े, महिषादि पशु और पक्षिगरण मैथुनासक्तावस्था में एक दूसरे को मार डालने के लिए तत्पर रहते हैं। प्राचीन समय में मैथुनासक्ति के कारण जो अनेक जनक्षयकारी युद्ध हुए उनमें से सीता, द्रौपदी, रुक्मिणी, पद्मावती, तारा, कंचना, सुभद्रा, अहिल्या, सुवर्णगुलिका, किन्नरी, सुरूपा विद्युन्मती और रोहिणी के लिए हुए संग्रामों का इसमें उल्लेख किया गया है। इसमें प्रसंगवशात् स्त्रियों के सौन्दर्य का भी वर्णन किया गया है। मैथुनसेवन के दारुण दुःखपूर्ण फल का उल्लेख करते हुए इसमें बताया गया है कि मैथुनासक्ति के कारण प्राणी इस लोक और परलोक दोनों में ही नष्ट होकर बस-स्थावर, सूक्ष्म-बादर भेद वाले नरक आदि चतुर्गति रूप संसार में दीर्घ काल तक भटकता हुआ जरा-मरण, रोग-शोक आदि दुःखों को भोगता रहता है। ५. पंचम अध्ययन में विविध प्रकार के चल, अचल तथा मिथ परिग्रह का उल्लेख किया गया है । इसमें वृक्ष के रूपक के माध्यम से परिग्रह का वर्णन है । इसमें परिग्रह के ३० नामों का उल्लेख करते हुए संचय, उपचय, लोभात्मा आदि शब्दों को एकार्थक अर्थात् पर्यायवाची बताया गया है। इस अध्ययन में यह भी स्पष्ट किया गया है कि चार जाति के देवगण और ८८ ग्रहों के देव-देवी आदि भी ममत्व रखते हैं तथा कर्म भूमि के मनुष्य - चक्रवर्ती, वासुदेव, बलदेव, माण्डलिक, ईश्वर, तलवर, श्रेष्ठी, सेनापति, इभ्य आदि परिग्रह का संचय करते Jain Education International www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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