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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य सू० भ० रा. थे? मानती हैं। ऐसी दशा में उपरोक्त दोनों कवियों ने चतुर्थ एवं पंचम गणधर को क्षत्रिय माना है। इस सम्बन्ध में विशेष खोज करने की आवश्यकता है। यहां सबसे बड़ी विचारणीय बात तो यह है कि भगवान महावीर के ग्यारह गणधरों में सुप्रतिष्ठ नाम के कोई भी गणधर नहीं थे। ऐसी स्थिति में वीर कवि और पं० राजमल्ल ने चतुर्य गणधर का नाम आर्यव्यक्त के स्थान पर सुप्रतिष्ठ और प्रार्य सुधर्मा को सुप्रतिष्ठ का पुत्र बताते हुए जों कथानक प्रस्तुत किया है, वह सारा कथानक ही तब तक प्रामाणिक नहीं माना जा सकता जब तक कि इसकी पुष्टि में कोई प्राचीन ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हो जाता। मार्य सुधर्मा का निर्वाए मार्य सुधर्मा ने ५० वर्ष की अवस्था में भगवान् महावीर के पास श्रमणदीक्षा ग्रहण कर तप-संयम की माराधना और निरन्तर ३० वर्ष तक एक परम विनीत शिष्य के रूप में भगवान की आज्ञा का पालन करते हुए गण की महती सेवा की। उन्होंने प्रभु के निर्वाण के पश्चात् प्रभु के प्रथम पट्टधर के रूप में २० वर्ष तक संघाधिनायक रहकर संघ का संचालन किया। वीर-निर्वाण संवत् १२ में इन्द्रभूति गौतम के निवारण के पश्चात् उन्होंने चार घाति-कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त किया। इस प्रकार आर्य सुधर्मा ने १२ वर्ष छपस्थचर्या में संघाधिनायक रहते हुए तथा ८ वर्ष तक केवली रूप से संघाधिनायक रहते हुए कुल मिलाकर २० वर्ष तक भगवान महावीर के शासन की अमूल्य सेवाएं की, जो इस पंचम प्रारक की समाप्ति तक जिनशासन के इतिहास में स्वर्णाक्षरों से अंकित की जाती रहेंगी। अन्त में वीर नि० संवत् २० के अन्तिम चरण में ईसा से ५०७ वर्ष पूर्व राजगृह नगर के गुरणशील चैत्य में प्रार्य सुधर्मा ने पादोपगमन संथारा किया। आर्य सुधर्मा ने पचास वर्ष का एक लम्बा आदर्श, पवित्र और सफल जीवन जीते हए वीर निर्वाण संवत् २० के अन्तिम चरण में एक मास के पादोपगमन संथारे से १०० वर्ष की आयु पूर्ण कर अपने जीवन का चरम और परम लक्ष्यनिर्वाण प्राप्त किया जिसके लिये वे पचास वर्ष की प्रायू में अपना सर्वस्व त्याग कर साधनापथ पर पारूढ़ हुए थे। विश्व-कल्याणकारी उन महान् आचार्यप्रवर को कोटि-कोटि प्रणाम ! वर्तमान द्वादशांगी के रचनाकार ममस्त जैन परम्परा की मान्यतानुसार तीर्थकर भगवान् अपनी देशना में जो अर्थ अभिव्यक्त करते हैं, उनको उनके प्रमुख गिय गग्गधर शामन के हितार्थ मवे य माहणा जच्चा, सम्वे प्रभावया विऊ । गये दुवाळसंगीग्रा, गवे व उदम पुश्विगो ।। ६५.७।। प्रावश्यक नियु नि, भन्टयति, भाग २, पत्र ३६६ (२), Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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