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________________ असमर्थांश्च निवर्तयन्ति, एवं गणतृप्तिप्रवृत्ताः प्रवर्तिनः ।' संयम, तप आदि के आचरण में जो धैर्य और सहिष्णुता चाहिए, जिनमें वह होती है, वे ही उसका सम्यक अनुष्ठान कर सकते हैं। जिनमें वैसी सहनशीलता और दृढ़ता नहीं होती, उनका उस पर टिके रहना सम्भव नहीं होता। प्रवर्तक का यह काम है कि किस श्रमण को किस ओर प्रवृत्त करे, कहां से निवृत्त करे। गरण को तृप्त-तुष्ट - उल्लसित करने में प्रवर्तक सदा प्रयत्नशील रहते हैं। स्थविर जैन संघ में स्थविर का पद अत्यन्त महत्वपूर्ण है। स्थानांग सूत्र में दश प्रकार के स्थविर बतलाये गये हैं, जिनमें से अन्तिम तीन जाति-स्थविर, श्रुतस्थविर तथा पर्याय-स्थविर का सम्बन्ध विशेषतः श्रमण-जीवन से है। स्थविर का सामान्य अर्थ प्रौढ़ या वृद्ध है। जो जन्म से अर्थात् आयु से स्थविर होते हैं, वे जाति-स्थविर कहे जाते हैं । स्थानांग वृत्ति में उनके लिए साठ वर्ष की आयु का संकेत किया गया है। जो श्रत-समवाय आदि अंग-ग्रागम व शास्त्र के पारगामी होते हैं, वे श्रुत-स्थविर कहे जाते हैं। उनके लिए प्रायू की इयत्ता का निर्वन्ध नहीं है। वे छोटो प्राय के भी हो सकते हैं। पर्याय स्थविर वे होते हैं, जिनका दीक्षा-काल लम्बा होता है। इनके लिए बोस वर्ष के दीक्षा-पर्याय के होने का वृत्तिकार ने उल्लेख किया है। जिनकी आयु परिपक्व होती है, उन्हें जीवन के अनेक प्रकार के अनुभव होते हैं। वे जीवन में बहुत प्रकार के अनुकूल-प्रतिकूल, प्रिय-अप्रिय घटनाक्रम देखे हुए होते हैं अतः वे विपरीत परिस्थिति में भी विचलित नहीं होते हैं। वे स्थिर मने रहते हैं । स्थविर शब्द स्थिरता का भी द्योतक है। जिनका शास्त्राध्ययन विशाल होता है, वे भी अपने विपुल ज्ञान द्वारा जीवन-सत्य के परिज्ञाता होते हैं। शास्त्र-ज्ञान द्वारा उनके जीवन में प्राध्यात्मिक स्थिरता और दृढ़ता होती है। जिनका दीक्षा-पर्याय, संयम-जीवितव्य लम्बा होता है, उनके जीवन में धार्मिक परिपक्वता, चारित्रिक बल एवं प्रात्म प्रोज सहज ही प्रस्फुटित हो जाता है। ' व्यवहार भाष्य, उद्देशक १, गाथा ३४० २ स्थानांग सूत्र स्थान १० सूत्र ७६२ 3 जातिस्थविरा:- षष्ठिवर्षप्रमाणजन्मपर्यायाः । ___ - स्थानांग सूत्र, स्थान १०, सूत्र ७६२ (वृत्ति) ४ श्रुतस्थविरा :- समवायाधंगधारिणः । - स्थानांगसूत्र स्थान, १० सूत्र, ७६२ (वृत्ति) ५ पर्यायस्थविरा :- विशतिवर्षप्रमाण प्रव्रज्यापर्यायन्तः । - स्थानांगसूत्र, स्थान १०, सूत्र ७६२ (वृत्ति) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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