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________________ के काल वि. मान्यताएं] केवलिकाल : मार्य जम्बू २३३ टीकाकार वीरसेन ने और हरिवंशपुराणकार तथा श्रुतावतारकार ने भी वीर निर्वाण १ से १२ वर्ष पर्यन्त गौतम स्वामी का, गौतम स्वामी के पश्चात १२ वर्ष तक सुधर्मास्वामी का और सुधर्मास्वामी के निर्वाण पश्चात् ३८ वर्ष तक जम्बू स्वामी का केवली काल माना है जो कुल मिलकर ६२ वर्ष होता है। इसके विपरीत प्राचार्य गणभद्र ने अपने ग्रंथ महापुराण-उत्तरपुराण' में तथा पुष्पदन्त ने अपभ्रंश भाषा के अपने महापुराण में गौतम स्वामी और सुधर्मा स्वामी का क्रमशः बारह-बारह वर्ष और जम्बू स्वामी का ४० वर्ष- इस प्रकार कुल ६४ वर्ष का केवली काल माना है, जिससे श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य ६४ वर्ष के केवली काल की मान्यता की पुष्टि होती है। ऐसी स्थिति में ६४ वर्ष का केवली काल दोनों परम्परामों में मान्य होने के कारण अधिक प्रामाणिक माना जा सकता है। इन सब से विपरीत वीर कवि ने अपने अपभ्रंश महाकाव्य "जम्बचरिउ" और पं० राजमल्ल ने अपने संस्कृत काव्य - "जम्बस्वामिचरितम्" में जम्बस्वामी के केवलिकाल के सम्बन्ध में एक नया ही अभिमत रखा है। गौतमस्वामी और सधर्मास्वामी के केवलज्ञान के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा है कि जिस दिन भगवान महावीर का निर्वाण हुमा उसी दिन गौतम स्वामी को केवलज्ञान प्राप्त हुमा और जिस दिन गौतमस्वामी का निर्वाण हुआ उसी दिन सुधर्मा स्वामी को केवलज्ञान हमा। सुधर्मा स्वामी के निर्वाण के समय जम्बस्वामी को दीक्षा ग्रहण किये १८ वर्ष व्यतीत हो चुके थे। और सुधर्मा स्वामी के निर्वाण पश्चात् प्रर्द्ध ' सुधर्मगणभृत्पा समचित्तो गृहीष्यति । कैवल्यं द्वादशान्दान्ते मय्यन्त्यां गोतमांगते ॥११॥ मुषर्मा केवली जम्बूनामा च श्रुतकेवली । भूत्वा पुनस्ततो द्वादशाम्दान्ते नितिगते ।।१२।। सुधर्मण्यन्तिमं ज्ञानं जम्यूनाम्नो भविष्यति । तस्य गिष्यो भवो नाम, चत्वारिकरसमा महान् । इह धर्मोपदेशेन, परित्र्यां विहरिष्यति । इत्यवादीतदाकण्यं स्थितस्तस्मिन्ननावृतः ॥ [उत्तरपुराण, ७६ पर्व, पृ० ५३७] पत्तइ-बारहमइ संवच्छरि, चित्तारिट्टि विलियमचरि । पंचमु णाणु एहु पावेसइ भवु गामेण महारिसि होसइ तेण समऊ महियलि विहरेसई दहगुरिणयई पत्तारि कहेसइ । बरिसइं धम्म सव्वमम्वोहहं वि सियबहु मिच्छामोहहं अंतिम केवली उप्पजेसह मह पहुवंसह उष्णई होसह । [महापुराण, पुष्पदंत, संधि १.०, पृ० २७४] ३ (क) जम्बूसामिचरित (वीरविरचित, डॉ. वी० पी० जैन द्वारा सम्पादित), १०:२३ (ख) एवमष्टादशाम्दानां, व्यतिक्रान्ता इव क्षरणं । जम्यूस्वामिनि धोरोपं, तपः कुर्वति नेकपा ॥१.६ तपोमासे सिते पक्षे सप्तम्यां च शुभे दिने । 'निर्वाणं प्राप सौधर्मों, विपुलाचल मस्तकात् ॥११. [जम्बू च० (राजमल्ल), सं० १२] - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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