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________________ इस प्रकरगा के - "प्रार्य स्थूलभद्र द्वारा अति दुष्कर अभिग्रह" और "उत्कट साधना का अनुपम प्रतीक अवन्ति सूकुमाल"- ये दो ऐसे अमर ग्राख्यान हैं, जो साधना-पथ पर अग्रसर होने वाले प्राध्यात्मिक पथ के पथिकों को सदा सर्वदा शशि सूर्य की तरह पथप्रदर्शन करते रहेंगे। संसार के साहित्य में अन्यत्र इस प्रकार के अप्रतिम पाख्यान संभवतः खोजने पर भी उपलब्ध नहीं होंगे। मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त, कलिगपति महामेघवाहन भिक्खुराय खारवेल, गर्दभिल्ल, विक्रमादित्य आदि गजात्रों के जीवन एवं राज्य का जो परिचय दिया गया है, उससे न केवल जैनधर्म ही अपितु भारतीय इतिहास के कतिपय नवीन तथ्यों पर भी प्रकाश पड़ता है। इस प्रकरण के - "भ्रम का निराकरण" नामक उपशीर्षक के अन्तर्गत किये गये विवेचन में साम्प्रदायिक व्यामोहवशात् कुछ एक आधुनिक विद्वानो द्वारा अहिंसा के महान सिद्धान्तों पर किये गये दोषारोपण का निराकरण किया गया है । इसमें न केवल भारतीय अपितु विश्व इतिहास के कतिपय ऐतिहामिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह बताया गया है कि सही अर्थ में अहिंसा के महान सिद्धांत ही शूरवीरता का पाठ पढ़ाते हैं । अहिंसा में कायरता के लिए कहीं लेशमात्र भी स्थान नहीं है। भारत में जब तक अहिंसा के महान् सिद्धान्तों का अन्तर्मन से पालन होता रहा, तब तक मानवता सर्वतोमुखी सद्धि के साथ समन्नत होती हुई श्रेयष्कर ममुत्कर्ष के उच्चतम शिखर पर प्रासीन रही, देश सर्वतः सुसम्पन्न, स्वतन्त्र, शक्तिशाली. और सूखी बना रहा। निर्वाण पश्चात् उदायो, नन्दिवर्धन. अशोक और विक्रमादित्य जैसे विश्ववन्धुत्व की भावना से प्रोत-प्रोत एवं हिमा के पुजारी राजाओं के राज्यकाल विश्व इतिहास में इस बात के प्रतीक हैं कि सच्ची अहिंसा का अनुपालन ही वस्तुत: सौख्य-समृद्धि एवं कल्याण की कुँजो है। अहिंसा के सिद्धान्तों ने विश्व की केवल मानवता पर ही नहीं अपितु विश्व के समस्त भूतमंघ पर असीम उपकार किया है। ज्यों-ज्यों मानव अहिमा के विश्वकल्याणकारी सिद्धान्तों को भूलता गया त्यों-त्यों वह मानवीय गुरगों में विहीन हो दासता, और दारुण दुःख द्वन्द्व के निबिड़तम बन्धनों में प्राबद्ध हो रसानल में गिरता गया। इस प्रकरण के - "प्रा. सहस्ती के बाद की संघ व्यवस्था"- इस उपशीर्षक के अन्तर्गत गगों, शाखानों, गणधर वंश परम्परा, वाचनाचार्य परम्परा और युग-प्रधानाचार्य परम्परा के उद्भव प्रयोजन और क्रमिक विकास का एक सुस्पष्ट चित्र प्रस्तुत किया गया है। कालवशात् अवश्यंभावी गणवाहल्य एवं अनेक आचार्यों के पृथक अस्तित्व को, मान्यता प्रदान करते हुए उस समय के धमरा श्रेष्ठों ने जो दुरणिता पूर्ण बुद्धि कौशल प्रशित किया और उसके फलस्वरूप भगवान् महावीर का धर्म-संघ विविधता में भी अपनी एकरूपता बनाये रख सका, उमका भी इस प्रकरण में विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। ४. सामान्य पूर्वधर-काल - श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार वीर नि. सं०५८४ से १००० तक का काल सामान्य पूर्वधरकाल माना गया है । इस प्रकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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