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________________ ४४५ प्रार्य महा० की साधना] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य महागिरि-सुहस्ती कल्प का श्रमणाचार पालन करना प्रारम्भ किया।' आर्य महागिरि ने जिनकल्पी प्राचार स्वीकार करने के पश्चात् भी गच्छवास नहीं छोड़ा। उनका विचरण तो आर्य महस्ती और अपने श्रमणों के साथ ही होता था। किन्तु वे भिक्षाटन एकाकी ही करते और निर्जन एकान्त स्थान में एकाकी ही ध्यानमग्न रहते। उन्होंने यह घोर अभिग्रह किया कि जो रूखा-सूखा-बासी अन्न गृहस्थों द्वारा बाहर फेंकने योग्य होगा, भिक्षा में उसी अन्न को वे ग्रहण करेंगे। विभिन्न क्षेत्रों में विचरण करते हुए प्रार्य महागिरि और आर्य सुहस्ती एक समय अपने श्रमणसमूह के साथ पाटलिपुत्र पधारे। वहां पर वसुभूति नामक एक अति समृद्ध श्रेष्ठी ने प्रार्य सुहस्ती के उपदेश से प्रबुद्ध हो श्रावकधर्म अंगीकार किया । श्रेष्ठी वसुभूति ने अपने परिवार के सब सदस्यों को जिनप्ररूपित धर्म की महत्ता समझाते हुए जैन धर्मावलम्बी बनाने का बहुत प्रयास किया। जब वसुभूति ने देखा कि वह उन्हें धर्म के गूढ़ तत्व को संतोषजनक ढंग से नहीं समझा पा रहा है तो उसने प्रार्य सुहस्ती से प्रार्थना की कि वे उसके घर पधार कर उसके परिवार के लोगों को धर्म का सही स्वरूप समझावें। श्रेष्ठी वसुभूति की प्रार्थना स्वीकार कर आर्य सहस्ती वसुभूति के घर जाकर उसके परिवार के सदस्यों को धर्म का वास्तविक स्वरूप समझाकर उन्हें जिनधर्मानुरागी बनाने लगे। जिस समय आर्य सुहस्ती उपदेश दे रहे थे उसी समय आर्य महागिरि भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए श्रेष्ठी वसुभूति के निवासस्थान पर पधारे। आर्य महागिरि को देखते ही आर्य सुहस्ती ने प्रासन से उठकर बड़े विनय के साथ उन्हें वन्दन-नमन किया। ___महागिरि के लौट जाने पर श्रेष्ठी वसुभूति ने प्रार्य सुहस्ती से पूछा - "गुरुवर ! आप तो विश्ववंद्य हैं। क्या आपके भी कोई गुरु हैं जो आपने अभी यहां आये हुए मुनिराज को वन्दन किया ?" आर्य सुहस्ती ने कहा- "श्रोष्ठिमुख्य ! वे महान् तपस्वी मेरे गुरु हैं। ग्रहस्थों द्वारा बाहर फेंके जाने योग्य अन्न को ही वे भिक्षा में ग्रहण करते हैं। यदि इस प्रकार का त्याज्य अन्न भिक्षा में न मिले तो वे उपवास पर उपवास करते रहते हैं। वस्तुतः उनका नाम निरन्तर रटने योग्य और चरणरज मस्तक पर चढ़ाने योग्य है।" ' महागिरिनिजं गच्छमन्यदादात्सुहस्तिने । विहर्तुं जिनकल्पेन त्वेकोऽभून्मनसा स्वयम् ॥३॥ व्युच्छेदाज्जिनकल्पस्य गच्छनिश्रास्थितोऽपि हि । जिनकल्पाहया वृत्या विजहार महागिरिः ॥४॥ [परिशिष्ट पर्व, सर्ग ११] सुहस्ती स्माह भो ! श्रेष्ठिन्ममैते गुरवः खलु । त्यागाहभक्तपानादिभिक्षामाददते सदा ।।१३।। ईदृग्भिक्षाशना येतेऽपरथा स्युरुपोषिताः । सुगृहीतं च नामैषां वन्यं पादरजोऽपि हि ॥१४॥ [परिशिष्ट पर्व, सर्ग ११] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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