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________________ प्राचार्य सामन्तभद्र ] सामान्य पूर्वघर - काल : श्रायं ब्रह्मद्वीपकसिंह जब निग्रंथ गच्छ, कौटिक गच्छ, और चन्द्रगच्छ के नामान्तरों से गुजरता हुआ साधु-समुदाय जनसम्पर्क में आगे बढ़ा, तब श्रमरणों का प्रावास भी मुख्य रूप से वसतियों में होने लगा हो, यह स्वाभाविक है। संभव है प्रायं रक्षित के पश्चात् साधु सम्प्रदाय में शिथिलता अधिक बढ़ी हुई देख कर संयमशुद्धि और उग्र साधना को बनाये रखने के लिये सामन्तभद्र ने शिथिलाचार के विरुद्ध वनवास स्वीकार किया हो । दूसरा यह भी संभव है कि वीर नि० सं० ६०६ में हुए श्वेताम्बर - दिगम्बर सम्प्रदायभेद को पाट कर दोनों में समन्वय करने की दृष्टि से उग्र संनमाराधन का प्रयत्न प्रारम्भ किया गया हो । आचार्य सामन्तभद्र द्वारा किया गया यह उम्र प्रचार का अभियान शिथिलाचार के विरोध में कुछ समय तक अवश्य प्रभावोत्पादक रहा होगा । पर इसमें यथेप्सित स्थाई सफलता नहीं मिल पाई । इसी अवधि में दिगम्बर परम्परा में भी समन्तभद्वै नामक एक प्राचार्य के होने के उल्लेख उपलब्ध होते हैं । क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी के अनुसार उनका समय ईसा की दूसरी शताब्दी में प्राता है ।" हो सकता है सामन्तभद्र को ही समन्तभद्र समझ कर उनके उत्कट प्रचार के कारण उन्हें सम्मानपूर्ण दृष्टि से देखा एवं अपना लिया गया हो । ६३३ आपके जन्म, दीक्षा, प्राचार्यपद और स्वर्गवास का समय उपलब्ध नहीं होता । तपागच्छ पट्टावली के अनुसार आपका अस्तित्वकालं वीर नि० सं० ६७० के आसपास माना गया है । १७. श्राचार्य वृद्धदेव-गरणाचार्य आचार्य सामन्तभद्र के पश्चात् १७वें गरणाचार्य वृद्धदेव हुए। इनका केवल इतना ही परिचय मिलता है कि वृद्धावस्था में प्राचार्य पद प्राप्त करने के कारण सभी उन्हें वृद्धदेवसूरि के नाम से संबोधित करने लगे । सामन्तभद्र की परम्परा के आचार्य होने के कारण आपको भी उग्र क्रिया का समर्थक माना गया है । १८. प्राचार्य प्रद्योतन-गरणाचार्य आचार्य वृद्धदेव के पश्चात् श्रार्य प्रद्योतनसूरि गरणाचार्य हुए। पट्टावलियों में इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध है कि अजमेर और स्वर्णगिरि में आपने प्रतिष्ठा करवाई पर स्वर्गीय मुनि कान्तिसागरजी के अनुसार इतिहास के प्रकाश में इस प्रकार के उल्लेखों की सच्चाई संदिग्ध मानी गई है। आपका स्वर्गवास वीर नि० सं० ६६८ में होना बताया गया है । १६. प्राचार्य मानदेव-गरणाचार्य प्राचार्य प्रद्योतनसूरि के पश्चात् १६ वें पट्टधर गणाचार्य मानदेव हुए । प्राचार्य मानदेव त्याग तप की विशिष्ट साधना में इतने प्रसिद्ध थे कि जैन १ जैनेन्द्र सिद्धान्तकोष, भा० १, पृ० ३३६ २ मुनि कान्तिसागरजी द्वारा लिखित जैन इतिहास की पाण्डुलिपि, पृ० १०६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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