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________________ कुषाण म. वासुदेव] सामान्य पूर्वधर-काल : प्रायं ब्रह्मद्वीपकसिंह ने भी भारशिवों द्वारा कुषाण साम्राज्य की समाप्ति के लिये प्रारम्भ किये गये अभियान में बड़ा उल्लेखनीय योगदान दिया और अन्ततोगत्वा भारशिव राजा वीरसेन ने ईसा की दूसरी शताब्दी के समाप्त होते होते आर्य धरा से सदा के लिये कुषाणों के शासन को समाप्त कर दिया । भारशिवों ने अपनी विजयों के उपलक्ष में काशी में गंगा के किनारे पर १० अश्वमेघ यज्ञ किये' और इन यज्ञों की स्मृति को चिरस्थायी बनाये रखने के लिये उस स्थान पर दशाश्वमेध घाट का निर्माण करवाया। यद्यपि भारशिवों ने कुषाण राजवंश के शासन को भारत भूमि से सदा के लिये समाप्त कर दिया पर भारत के अन्तिम कुषाण राजा वासुदेव के पश्चात् भी कुषाण वंश के कतिपय और भी राजा हुए। उनका राज्य काबुल की घाटी और सीमान्त प्रदेश तक हो सीमित रहा। गुप्त राजवंश के चरमोत्कर्षकाल में काबुल की घाटी और सीमान्त प्रदेश के बचे-खुचे कुषाण राज्य भी समाप्त हो गये। समुद्रगुप्त के इलाहाबाद के स्तंभलेख में गान्धार और काश्मीर के कृषारण राजाओं द्वारा बहुमूल्य वस्तुओं की भेंट के साथ समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार किये जाने का उल्लेख है। किदार नामक एक कुषाणवंशी राजा के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। इन तथ्यों से ऐसा प्रकट होता है कि ईसा की पांचवीं शताब्दी तक गान्धार और काश्मीर में कुषारणों का राज्य रहा।२ मारशिव राजवंश की शाखाएं विदेशी कुषाणों के शासन का अन्त करने के पश्चात् भारशिव वंशी नाग राजा वीर सेन ने अपने एक पुत्र हयनाग को कान्तिपुरी के राज्य का, दूसरे पुत्र भीमनाग को पद्मावती के राज्य का और तीसरे पुत्र को जिसका कि नाम अज्ञात है - मथुरा के राज्य का अधिकारी बनाया। हयनाग के पश्चात् कान्तिपुरी के राज्य पर क्रमशः त्रयनाग, बर्हिन नाग, चरजनाग और भवनाग ने शासन किया। भवनाग ने अन्त समय में अपने दौहित्र रुद्रसेन (वाकाटक सम्राट् प्रवरसेन के पौत्र) को पुरिका का राज्य दिया। इस प्रकार भारशिव राजवंश की एक शाखा का राज्य वाकाटक राज्य के रूप में परिवर्तित हो गया। पद्मावती के राजसिंहासन पर भीमनाग के पश्चात् क्रमशः स्कन्दनाग, बृहस्पतिनाग, व्याघ्रनाग, देवनाग और गणपति नाग बैठे। वाकाटकों और गुप्तों के साथ भारशिवों के वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित हए । इस वैवाहिक गठबन्धन के परिणामस्वरूप इन तीनों राजवंशों ने भारत को एक लम्बे समय तक विदेशी आक्रान्ताओं के भय से सर्वथा मुक्त रखा। ...... Bharsivas who were so powerful that they had to their credit the performance of as many as teo Ashvamedha sacrifices following their conquests along the Bhagirathi (Ganges) [The Gupta Empire, by Radhakumud Mookerji, p. 7) २ [बही; page4] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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