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________________ सहित एकतन्त्रीय शासन प्रणाली निर्धारित की, उसमें इस प्रकार की व्यवस्थाएं की गई थी कि उन व्यवस्थाओं को कार्यान्वित करते रहने पर वह सदा निर्दोष और पूण स्वस्थ परम्परा बनी रहे । उस व्यवस्था में संघ के संरक्षण, उत्कर्ष प्रादि के लिये पूर्णतः उत्तरदायी एवं सांकुश सर्व सत्ता सम्पन्न जो प्राचार्य पद रखा, उस पद पर नियुक्ति का प्राधार निर्वाचन के स्थान पर मनोनयन रखा गया। संघ संचालन की इस प्रकार की एकतन्त्री प्रणाली में कभी किसी प्रकार का दोष प्राने की संभावना तक न रहे, इस उद्देश्य से उसी श्रमण को प्राचार्य पद पर मनोनीत अथवा अधिष्ठित करने का कड़ा विधान किया गया, जिसमें निम्नलिखित योग्यताएं हों : __जो स्वयं पूर्ण प्राचारवान्, दूसरों से विशुद्ध प्राचार का परिपालन करवाने वाला, संघ में पूर्ण अनुशासन रखने की क्षमता वाला, श्रमण समूह को तलस्पर्शी तत्त्वज्ञान एवं प्रागम वाचना देने में सक्षय, साधक वर्ग को आध्यात्मिक उत्कर्ष की ओर उत्तरोत्तर अग्रसर करते रहने की असाधारण योग्यता वाला, जन्मजात मेधावी, सर्वातिशायी प्रोज-तेज-प्रतिभा-प्रभावसम्पन्न व्यक्तित्व का धनी, धीर-वीर-गम्भीर, संस्कार सम्पन्न, पुण्यात्मा, प्रात्मजयी, निष्कलंक जातिकुल-स्वभावसम्पन्न एवं निश्छल प्रकृति का हो। जैसा कि प्रार्य प्रभव एवं प्रार्य रक्षित के उपरिलिखित उल्लेखों से स्पष्ट है वीर निर्वाण के पश्चात् समय-समय पर प्राचार्यों ने और चतुर्विध संघ ने किसी भी श्रमरण को प्राचार्य पद पर अधिष्ठित अथवा मनोनीत करते समय अपने गुरुतर उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हुए उपरिलिखित योग्यतानों से सम्पन्न सर्वाधिक योग्य श्रमण को ही प्राचार्य पद पर अधिष्ठित किया। मतभिन्य की स्थिति में अथवा अन्य प्रात्यन्तिक महत्व के अवसरों पर प्रात्मार्थी प्राचार्यों ने समस्त संघ का विश्वास संपादन कर अन्तिम निर्णय वही दिया, जो उन्हें संघ एवं समष्टि के लिये हितकर प्रतीत हुआ। जैसा कि फल्गुरक्षित को उत्तराधिकारी घोषित किये जाने के प्रश्न से प्रकट है, उन्हें उनके पुनीत कर्तव्य के पावन उत्तरदायित्व से न लघुसहोदर का सम्बन्ध विचलित कर सका और न अन्य निकट से निकटतम सम्बन्ध ही। उन निर्लेप-निष्पक्ष महामना महान् प्राचार्यों के सुयोग्य नेतृत्व, दूरदर्शितापूर्ण समुचित निर्णयों, उद्दात्त चारित्र और सही मार्गदर्शन का ही प्रतिफल है कि धर्मसंघ की सांकुश एकतंत्र शासन प्रणाली में विनाशकारी दोष प्रवेश न पा सके और आज सहस्राब्दियां बीत जाने पर भी भगवान महावीर का धर्मसंघ एक प्रतिष्ठित धर्मसंघ के रूप में प्रक्षुण्ण और मजस्र धारा के प्रवाह की तरह चला आ रहा है । जब तक प्राचार्यों ने संघ के प्रति उत्तरदायी रहते हए संघहित के अपने महान् उत्तरदायित्व का सच्चाई के साथ निष्पक्ष और निर्लेप रह कर निर्वहन किया तब तक संघ अभिवृद्ध एवं समुन्नत होकर उत्तरोत्तर आध्यात्मिक उत्कर्ष की ओर अग्रसर होता रहा। ( ४७ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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