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________________ सामान्य पूर्वघर - काल : प्रायं रेवती नक्षत्र ६०३ "जिस प्रकार सरसों से भरे घड़े को उंडेलने पर घड़े में एक भी सर्सपकरण श्रवशिष्ट नहीं रह जाता, उसी प्रकार मैंने अपना सम्पूर्ण ज्ञान प्रार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र को सिखा दिया है" - श्रार्य रक्षित द्वारा अपने अन्तिम समय में संघ के समक्ष प्रकट किये गये इन उद्गारों से यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि सार्द्धनव पूर्वघर प्रार्य रक्षित से प्रार्यं दुर्बलिकालपुष्यमित्र ने साढ़े नव पूर्वो का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया । श्रार्य दुर्बल का पुष्यमित्र प्रबल श्रात्मबल के धनी होते हुए भी शारीरिक • दृष्टि से बड़े दुर्बल रहते थे । वे अध्ययन, चिन्तन, मनन में इतने अधिक तल्लीन रहते थे कि प्रहर्निश किये जाने वाले उस अत्यधिक परिश्रम के कारण स्निग्धतर और गरिष्ठ से गरिष्ठतम भोजन से भी उनके शरीर में श्रावश्यक रस का निर्माण नहीं होता था । इसी शारीरिक दुर्बलता के कारण आप संघ में दुर्बलिकापुष्यमित्र के नाम से प्रसिद्ध हुए ।" भारतीय इतिहास और जैन इतिहास- इन दोनों ही दृष्टियों से प्राचार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र का प्राचार्यकाल बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रखता है। प्रापके प्राचार्यकाल में ऐतिहासिक महत्व की निम्नलिखित दो घटनाएं घटित हुईं : १. आपके प्राचार्यकाल ( वीर नि० सं० ६०५ ) में प्रतिष्ठानपुर के अधिपति गौतमीपुत्र सातवाहन ने आर्यधरा से शक - शासन का अन्त कर शालिवाहन शाक-संवत्सर की स्थापना की, जो विगत १६ शताब्दियों से प्राज तक भारत के प्रायः सभी भागों में प्रचलित है । २. आपके प्राचार्यकाल (वीर नि० सं० ६०९) में जैन संघ - श्वेताम्बर मौर दिगम्बर इन दो भागों में विभक्त हो गया । - यह पहले बताया जा चुका है कि श्रार्य रक्षित ने प्रार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र द्वारा परावर्तन के प्रभाव में पठितार्थ के विस्मरण की बात सुन कर कालप्रभाव से भावी शिष्यसन्तति की परिक्षीयमारण स्मरणशक्ति को लक्ष्य में रखते हुए अनुयोगों का पृथक्करण किया। जैन इतिहास की दृष्टि से, अति महत्वपूर्ण, अनुयोगों के पृथक्करण की घटना में भी प्रार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र ही निमित्त माने गये हैं । ३० वर्ष तक सामान्य व्रतपर्याय में रहने के अनन्तर वीर निर्वाण सं० ५६७ में श्राप युगप्रधानाचार्य बने । युग - प्रधानाचार्य पद से भगवान् महावीर के धर्मशासन की २० वर्ष तक उल्लेखनीय सेवा भौर प्रभावना करने के पश्चात् वीर नि० सं० ६१७ में मापने स्वर्गारोहण किया । श्रापकी पूर्ण आयु ६७ वर्ष, ७ मास भोर ७ दिन की मानी गई है। दुष्षमाकाल श्रीश्रमरणसंघस्तोत्र की तालिका में पक्षान्तर का उल्लेख करते हुए प्रापका युगप्रधानाचार्यकाल २० के स्थान पर १३ वर्ष और पूर्णायु ६७ वर्ष, ७ मास एवं ७ दिन के स्थान पर ६० बर्ष, ७ मास तथा ७ दिन बताई गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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