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________________ विद्युचोर को प्रतिबोध ] केवलिकाल : भ्रायं जम्बू २४५ मन किंचितमात्र भी विचलित नहीं हुआ । में यह जानना चाहता हूं कि इस सब के पीछे कारण क्या है। आज से तुम मेरी धर्म बहिन हो और में तुम्हारा सहोदरोपम भाई ।” अपने उद्वेलित अश्रुसमुद्र को हठात् रोकते हुए साहस बटोर कर जिनमती ने कहा - "भैया ! मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय और मेरे कुल का दीपक यह मेरा इकलौता पुत्र है । इसने जैन श्रमरण - दीक्षा ग्रहण करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है। मोहवश हमने बड़े हठाग्रहपूर्वक इसका विवाह कर दिया है पर यह सूर्योदय होते ही सब कुछ छोड़ - छिटका कर जैन श्रमण बन जायगा । इसके इस अवश्यंभावी वियोग के वज्र से मेरा हृदय खंड-खंड हो विचूरिंगत हो रहा है ।" विद्युच्चर ने कहा - "बहिन ! यदि ऐसी किसी प्रकार की चिन्ता न करो। मैं अभी कुछ ही पूर्ण किये देता हूं। जम्बूकुमार को गृहस्थ धर्म की व्यक्ति के लिये एक साधारण सरल कार्य है । किसी न किसी तरह तुम मुझे एक बार जम्बूकुमार के पास पहुंचा दो । फिर देखना कि जिस कार्य को तुम नितान्त दुस्साध्य समझती हो, उसे मैं किस प्रकार बात ही बात में सुसाध्य ही नहीं, सिद्ध बना देता हूं।" बात है तो तुम अपने मन में क्षणों में तुम्हारी मनोकामना प्रोर प्रवृत्त करना मेरे जैसे कुछ हो क्षरण गहन चिन्तन की मुद्रा में खड़ी रहने के पश्चात् जिनमती अपने पुत्र के शयनागार के द्वार पर शनैः शनैः तर्जनी-प्रहार किया । जम्बूकुमार ने तत्क्षरण द्वार खोला और बड़े आदर के साथ अपनी माता को एक उच्चासन पर बैठाकर विनम्र स्वर में पूछा - "अम्ब ! इस समय आपने किस कारण स्वयं पधारने का कष्टं किया ?" जिनमती ने कहा- "पुत्र ! जिस समय तुम गर्भस्थ थे उस समय मेरा भाई व्यापारार्थ विदेश गया हुआ था। वह अब लौटा है । तुम्हारे विवाह की शुभ सूचना मिलते ही यह तुम्हें देखने की उत्कण्ठा लिये बड़ी दूर से चलकर प्राया है ।" जम्बूकुमार ने अपने मातुल से मिलने की अभिलाषा प्रकट की। विद्युच्चर को निमती तत्काल जम्बूकुमार के शयनकक्ष में ले गई। जम्बूकुमार मायामातुल (कृत्रिम मामा ) को देखते ही अपने प्रासन से उठे और दोनों ने प्रफुल्लित हो एक दूसरे को अपने बाहुपाश में भाबद्ध कर लिया । परस्पर कुशलक्षेम के प्रश्नोत्तर के पश्चात् प्रहर्निश चतुर वेश्या की संगति में रहने वाले चतुर विद्युच्चर ने अपनी वाक्चातुरी का चमत्कार दिखाते हुए जम्बूकुमार को भोगमार्ग की ओर आकृष्ट करने का भरपूर प्रयास किया । उसने . बड़ी चतुराई से जादूभरी शैली में त्यागमार्ग के प्रति तत्काल अनास्था उत्पन्न कर भोगमार्ग की ओर आकृष्ट कर देने वाले अनेक दृष्टान्त प्रस्तुत किये। कभी न उतरने वाले वैराग्य के रंग में रंगे हुए प्रत्युत्पन्नमति जम्बूकुमार ने विद्युच्चर द्वारा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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