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________________ ३२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग रहते हुए भगवान् महावीर के संघ का सुचारु रूप से संचालन किया । चतुर्दश पूर्व के ज्ञाता और वाग्लब्धिसम्पन्न होने के कारण श्रापने अपने उपदेशों से प्रनेक भोगीजनों को त्यागी -विरागी बनाया । श्रार्य स्थूलभद्र जैसे परम भोगी गृहस्थ प्रापके ही शिष्य थे, जिनकी महान् योगियों में सर्वप्रथम गणना की जाती है। कल्पसूत्र स्थविरावली के अनुसार आपके निम्नलिखित मुख्य स्थविर शिष्य और शिष्याएं थीं : शिष्य १. नंदनभद्र, २. उपनंदन भद्र, ३. तीसभद्द, ४ जसभद्द, ५. सुमिरणभद्द, ६. मणिभद्द, ७. पुण्यभद्द, ८. स्थूलभद्र, ६. उज्जुमई, १०. जम्बू, ११. दीहभद्द और १२. पंडुभद्द ।' शिष्याएं १. जक्खा, २. जक्खदिण्णा, ३. भूया, ४. भूयदिण्णा, ५. सेरणा, ६. वेरणा श्रौर ७. रेणा । ये सातों ही श्रार्य स्थूलभद्र की बहिनें थीं । वीर निर्वारण संवत् १५६ में प्रार्य संभूतविजय ने अपनी श्रायु का अन्तिम समय सन्निकट जानकर अनशन किया और समाधिपूर्वक स्वर्गगमन किया । यह यहां उल्लेखनीय है कि भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर प्रार्य सुधर्मा से लेकर प्राचार्य यशोभद्र स्वामी तक अर्थात् ५ पट्ट तक श्रमरणसंघ में एक प्राचार्य परम्परा बनी रही । वाचनाचार्य प्रादि के रूप में रहने वाले अन्य श्राचार्य एक ही पट्टधर प्राचार्य के तत्वावधान में शासन सेवा का कार्य करते प्राये थे पर प्राचार्य यशोभद्र ने संभूतविजय और भद्रबाह नामक दो श्रुतकेवली शिष्यों को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया । श्रावार्य यशोभद्र ने अपने पश्चात् दो प्राचार्यों की परम्परा किस कारण प्रारम्भ की, इसके सम्बन्ध में निश्चित रूप से तो कुछ नहीं कहा जा सकता पर ऐसा प्रतीत होता है कि श्रमरणसंघ के प्रत्यधिक विस्तार को देखकर संघ का संचालन समीचीन रूप से हो सके, इसी दृष्टि से प्राभ्यंतर प्रौर बाह्य संचालन का कार्य दो अलग श्राचार्यों में विभक्त कर दो प्राचार्यों की परम्परा प्रचलित की हो । • इतना तो निर्विवाद रूप से सिद्ध है कि प्राचार्य संभूतविजय वी० नि० सं० १४८ से १५६ तक भगवान् महावीर के शासन के सर्वेसर्वा श्राचार्य रहे और उनके स्वर्गगमन के पश्चात् ही प्राचार्य भद्रबाहु ने संघ की बागडोर सम्पूर्ण रूप से अपने हाथ में सम्भाली। संघ वस्तुतः दो प्राचार्यों की नियुक्ति के पश्चात् भी 'नंवरणभवु १ बनंदण-भद्दे २ तह तीसभद्दे ३ जसभद्दे । मेरे य सुमरणभद्दे ५ मणिमद्दे ( गरिणभद्दे ) ६ पुष्णभद्दे ७ य । मेरे पूलम ८ मई १ जंतूनांमविज्जे १० य । मेरे बीम ११ मेरे तह पंडुभद्दे १२ य ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only [ कल्पसूत्र स्थविरावली ] www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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