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श्रुतकेवली-काल : भाचार्य संभूतविजय वी०नि० सं० १४८ से १५६ तक प्राचार्य संभूतविजय का पाशानुवर्ती और १५६ से १७० तक प्राचार्य भद्रबाहु की प्राज्ञा का अनुवर्ती रहा । ऐसी दशा में यह कल्पना करना कि उस समय जैन संघ में किसी प्रकार के मतभेद का बीजारोपण हो चुका था, नितान्त निराधार कल्पना मात्र ही कहा जा सकता है।
दिगम्बर परम्परा दिगम्बर परम्परा में चौथा श्रुतकेवली प्राचार्य गोवर्धन को माना गया है। इनका भी दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में कोई विशेष परिचय उपलब्ध नहीं होता।
७. प्राचार्य श्री भद्रबाहु भगवान् महावीर के सातवें पट्टधर प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी हुए। मापका जन्म प्रतिष्ठानपुर के प्राचीन गोत्रीय ब्राह्मण परिवार में वी०नि० सं० ६४ में हुमा। ४५ वर्ष गृहस्थाश्रम में रहने के पश्चात् भद्रबाहु ने वीर नि० सं० १३६ में भगवान् महावीर के पांचवें पट्टधर प्राचार्य यशोभद्रस्वामी के पास निग्रंथ श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। अपने महान् यशस्वी गुरु यशोभद्र की सेवा में रहते हुए मापने बड़ी लगन के साथ सम्पूर्ण द्वादशांगी का अध्ययन किया और भाप श्रुतकेवली बन गये। वीर नि० सं० १४८ में प्राचार्य यशोभद्रस्वामी ने स्वर्गगमन के समय श्री सम्भूतविजय के साथ-साथ प्रापको भी प्राचार्य पद पर नियुक्त किया। वीर नि० सं० १४८ से १५६ तक अपने बड़े गुरुभाई प्राचार्य संभूतविजय के. प्राचार्यकाल में आपने शिक्षार्थी श्रमणों को श्रुतशास्त्र का प्रध्यापन कराने के साथ-साथ भगवान् महावीर के शासन की महती सेवा की।
भगवान् महावीर के छठे पट्टधर भाचार्य संभूतविजय के स्वर्गगमन के पश्चात् मापने वीर निर्धारण संवत् १५६ में संघ के संचालन की बागडोर पूर्णरूपेण अपने हाथ में संभाली। प्राचार्य भद्रबाहु ने दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प, व्यवहार पौर निशीथ- इन चार छेद सूत्रों की रचना कर मुमुखं साधकों पर महान् उपकार किया। अनेक पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों ने इन अन्तिम चतुर्दशपूर्वधर प्राचार्य भद्रबाहु को (१) प्राचारांग, (२) सूत्रकृतांग, (३) मावश्यक, (४) दशवैकालिक, (५) उत्तराध्ययन, (६) दशाश्रुतस्कन्ध, (५) कल्प (८) व्यवहार, (९) सूर्यप्राप्ति मोर- (१०) ऋषिभाषित- इन दश सूत्रों का नियुक्तिकार, महान् नैमित्तिक मौर उपसर्गहरस्तोत्र, भद्रबाहु संहिता तथा सवा लाख पद वाले "वसुदेव चरित्र" नामक ग्रन्थ का कर्ता भी माना है। इस संबंध में मागे यथास्थान प्रमाण पुरस्पर विचार किया जायगा। प्राचार्य भद्रबाहु स्वामी ने मार्य स्थूलभद्र जैसे योग्य श्रमणश्रेष्ठ को दो वस्तु कम दश पूर्वी का सार्थ सम्पूर्ण ज्ञान और प्रन्तिम चार पूर्वो का मूल स्पेण पापन देकर पूर्व-ज्ञान को नष्ट होने से बचाया।
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