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________________ . ३२६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [भद्रबाहु की महिमा __ आचार्य भद्रबाहु अपने समय के घोर तपस्वी, महान् धर्मोपदेशक, सकल श्रुतशास्त्र के पारदृश्वा और उद्भट विद्वान् होने के साथ-साथ महान् योगी भी थे। आपने निरन्तर १२ वर्ष तक महाप्राण-घ्यान के रूप में उत्कट योग की साधना की। इस प्रकार की दीर्घकालीन योगसाधना के उदाहरण भारतीय इतिहास में विरले ही उपलब्ध होते हैं। आपने वी० नि० सं० १५६ से १७० तक के १४ वर्ष के प्राचार्य-काल में भारत के विभिन्न क्षेत्रों में विचरण कर जिनशासन का प्रचारप्रसार और उत्कर्ष किया। जैन शासन में भद्रबाहु की महिमा आपको श्वेताम्बर तथा दिगम्बर' दोनों परम्पराओं द्वारा पांचवें तथा अन्तिम श्रुतकेवली माना गया है। भद्रबाहु स्वामी द्वारा की गई संघ एवं श्रुत की उत्कट सेवा के कारण उनका स्थान जैन इतिहास में बहुत ऊंचा है । श्रुतशास्त्र विषयक आपके द्वारा निर्मित कृतियां लगभग २३ शताब्दियों से प्राज तक मुमुक्षु साधकों के लिये प्रकाशमान दीपस्तम्भों का काम कर रही हैं। शासन-सेवा और अपनी इन अमूल्य कृतियों के कारण आप भगवान् महावीर के शासन के एक महान् ज्योतिर्धर प्राचार्य के रूप में सदा से सर्वप्रिय और विख्यात रहे हैं। मुमुक्षु साधकों पर किये गये इस उपकार के प्रति अपनी निस्सीम कृतज्ञता प्रकट करते हुए अनेक प्राचार्यों और विद्वानों ने आपकी बड़े भावपूर्ण शब्दों में स्तुति की है। भद्रबाहु के सम्बन्ध में विभिन्न मान्यताएं अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु का जैन इतिहास में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। दिगम्बर आम्नाय के कतिपय ग्रन्थों में इस प्रकार का उल्लेख किया गया है कि अंतिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के जीवन के अन्तिम चरण में ही दिगम्वर तथा श्वेताम्बर-इस प्रकार के मतभेद का सूत्रपात हो चूका था। इस दृष्टि से भी प्राचार्य भद्रबाहु के जीवन-चरित्र का एक बहुत बड़ा ऐतिहासिक ' सिरिगोदमेण दिण्णं सुहम्मरणाहस्स तेग जंबुस्स । विण्हु णंदीमित्तो तत्तो य पराजिदो य तत्तो ॥४३॥ गोवद्धरणो य तत्तो भद्दभुप्रो अंतकेवली कहियो ॥४४॥ [अंगपण्णत्ती] वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिमसगलसुयनारिण। सुत्तस्स कारगमिसि, दसासु कप्पे य ववहारे ॥१॥ [दशाश्रुतस्कन्ध-नियुक्ति] येनैषा पिण्डनियुक्तियुक्तिरम्या विनिमिता। द्वादशांगविदे तस्मै नमः श्री भद्रबाहवे ॥ [मलयगिरि पिंडनियुक्ति टीका] वंदामि भहबाहुं जेरण य अईरसियं बहुकलाकलियं । रइयं सवायलक्खं चरियं वसुदेवरायस्स ॥ [शान्तिनाथ चरित्र-मंगलाचरण] श्री कल्पसूत्रममृतं विबुधोपयोगयोग्यं जरामरणदारुणदुःखहारि । येनोद्धृतं मतिमता मथितात् श्रुताब्धेः, श्री भद्रबाहुगुरवे प्रणतोऽस्मि तस्मै ।। [क्षेत्रकीति-वृहत्कल्प टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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