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________________ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ चन्द्रगुप्त का परिचय 1 . बालक चन्द्रगुप्त को चारणवय अपने साथ बिना उसके अभिभावकों को पूछे ले गया, इस घटना के उल्लेख के तत्काल पश्चात् ही प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने परिशिष्ट पर्व में नन्द के साथ चारणक्य के संघर्षरत हो जाने का उल्लेख करते हुए बताया है कि चाणक्य ने धातुविज्ञान के माध्यम से उपार्जित स्वर्ण से एक सेना संगठित की और चन्द्रगुप्त ने उस सेना के साथ पाटलीपुत्र पर आक्रमण कर दिया । परिशिष्ट पर्व में किया गया यह उल्लेख नितांत प्रसंगत और अव्यवहार्य प्रतीत होता है । बालक्रीड़ात्रों में निरत एक ग्रामीण बालक को बिना किसी प्रकार की सैनिक शिक्षा दिये सहसा सेनापति बना कर उस समय के भारतवर्ष की सबसे शक्तिशाली राज्यसत्ता के विरुद्ध सैनिक अभियान करने के लिये झौंक देने जैसी अदूरदर्शिता चाणक्य जैसा उच्चकोटि का राजनीतिज्ञ और दूरदर्शी कूटनीतिज्ञ नहीं कर सकता । विस्तारभय अथवा अन्य किन्हीं कारणों से प्राचार्य हेमचन्द्र ने इन दोनों घटनाओं के मध्यवर्ती काल में चाणक्य द्वारा चन्द्रगुप्त को एक कुशल सेनानी और सुयोग्य शासक बनाने के लिये उसे समुचित शिक्षा दिलाने का उल्लेख नहीं किया है । ४२८ चाणक्य ने जिस कार्य को निस्पन्न करने का बीड़ा उठाया था वह वस्तुतः बड़ा गुरुतर और दुस्साध्य कार्य था । चाणक्य के कार्य का मूल्यांकन करने पर स्पष्टरूपेण यह विदित हो जायगा कि केवल अपने अपमान के प्रतिकार के लिये बदले की भावना से प्रेरित हो कर ही उसने इतना बड़ा संघर्ष नहीं किया था । वस्तुतः इस महान् संघर्ष के पीछे उसके अन्तर में अनेक उद्देश्य थे । तात्कालिक देशव्यापी विघटनकारी प्रवृत्तियों ने उसके मानस में तीव्र असंतोष को जन्म दिया । करभार से दबी हुई और कुशासन से प्रपीड़ित जनता को वह एक सार्वभौम सत्तासम्पन्न सशक्त सुशासन देना चाहता था । हो सकता है कि नन्द के राजप्रासाद में हुए अपमान ने उसके अन्तर में छुपे उन विचारों को प्रचण्ड रूप दे कर उसे राज्यक्रान्ति के लिये तीव्रतम प्रेरणा दी हो । अजस्र श्रम, शक्ति, शौर्य, साहस और मेमा से भी कष्टसाध्य इस महान् कार्य का श्रीगणेश करने से पहले महान् कूटनीतिज्ञ चरणक्य ने चन्द्रगुप्त को किसी न किसी प्रादर्श विद्यालय में उच्चशिक्षा प्रवश्यमेव दिलाई होगी, यह तो निश्चित रूप से मानना ही पड़ेगा । उस समय भारतवर्ष में दो महान् विश्वविद्यालय थे, एक तो तक्षशिला का प्रोर दूसरा नालन्दा का । नन्द के नाक के नीचे रहे हुए नालन्दा विश्वविद्यालय में चन्द्रगुप्त को शिक्षा दिलाने का खतरा मोल न ले कर चारणक्य ने प्रवश्यमेव तक्षशिला विश्वविद्यालय में उसके लिये शिक्षा की व्यवस्था की होगी, यह अनुमान युक्ति संगत ठहराया जा सकता है । जातक कथानों से पता चलता है कि तक्षशिला विश्वविद्यालय में राजकुमारों के लिये उच्चकोटि के सैनिक प्रशिक्षण की समुचित व्यवस्था थी, जिसमें सिद्धान्त तथा व्यवहार के साथ-साथ जातक के शब्दों में 'इस्सत्य सिव्य' प्रर्थात् धनुविद्या एवं 'हत्यिसुत' हाथियों से सम्बन्ध रखने वाली विद्या प्रादि की For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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