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________________ २८० जन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [अवंती का प्रद्योत रा. बोधिलाभ हुआ, उसी दिन चण्डप्रद्योत उज्जयिनी के राज्यसिंहासन पर बैठा और जिस दिन चौबीसवें तीर्थकर श्रमण भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ, उस ही दिन चण्डप्रद्योत का देहावसान हुआ ।' . जिस दिन पालक का राज्याभिषेक हुअा उस ही दिन गौतमस्वामी को केवलज्ञान की उपलब्धि हुई और आर्य सुधर्मास्वामी श्रमण भगवान् महावीर के प्रथम पट्टधर बने । वीर निर्वाण संवत् २० में प्रार्य सुधर्मा स्वामी ने परमपद निर्वाण प्राप्त किया, उसी वर्ष में अवन्ती के अधीश्वर पालक ने अपने बड़े पुत्र को राज्य और छोटे पुत्र राष्ट्रवर्धन को युवराज पद दे आर्य सुधर्मा के पास श्रमरणदीक्षा ग्रहण की और पालक का बड़ा पुत्र अवन्तीवर्धन अवन्ती के राज्यसिंहासन पर प्रारूढ हुआ। - यूवराज राष्ट्रवर्धन राज्यसंचालन में अपने बड़े भाई अनन्तीवर्धन को सहायता करने लगा । एक दिन अवन्तीवर्धन ने अपने छोटे भाई राष्ट्रवर्धन की प्रतिरूपवती पत्नी धारिणी को उद्यान में क्रीडा करते हुए देखा। उद्यान में किसी पुरुष की उपस्थिति की उसे आशंका नहीं थी, इसलिये वह निस्संकोचभाव से क्रीड़ा में निरत थी । प्रवन्तोवर्धन अपनी भ्रातृजाया के अंगप्रत्यंगों के सौष्ठवपूर्ण गठन और अनुपम सौन्दर्य को प्रच्छन्न रूप से देख कर उस पर मुग्ध हो गया। उसने कामासक्त हो अपनी विश्वस्त दासी को धारिणी के पास भेज कर अपनी आन्तरिक अभिलाषा से उसे अवगत कराया। धारिणी ने अवन्तीवर्धन के पापपूर्ण प्रस्ताव को ठुकराते हुए क्रुद्ध हो कहा- 'उस कामुक से कहना कि क्या तुम्हें अपने भाई से भी लज्जा का अनुभव नहीं होता।" राजा प्रवन्तीवर्धन ने कामान्ध हो षड्यन्त्र कर अपने छोटे भाई राष्ट्रवर्धन की रहस्यमय हत्या करवा दी। अपने पति की मृत्यु से दुखित हो धारिणी ने अपने सतीत्व की रक्षा हेतु उज्जयिनी का परित्याग करना ही श्रेयस्कर समझा । रात्रि के अन्धकार में अपने पोगण्ड-पुत्र अवन्तीसेन को सोते छोड़कर धारिणी अपने और अपने मृत पति के मूल्यवान प्राभरण लेकर उज्जयिनी के राजप्रासादों से निकली और प्रच्छन्नरूप से किसी सार्थ के साथ कौशाम्बी की ओर चल पड़ी। कौशाम्बी पहुंचने पर धारिणी कौशाम्बी के राजा की यानशाला में ठहरी हुई साध्वियों की सेवा में उपस्थित हुई और उसने उनके पास प्रव्रज्या स्वीकार कर ली । इस डर से कि कहीं साध्वियां उसे प्रवजित ही न करें, धारिणी ने उनके समक्ष यह बात प्रकट नहीं की कि वह गर्भिणी है। थोड़े ही समय के पश्चात् महत्तरिका (गुरुणी) ने उसके गर्भ की बात ज्ञात होने पर धारिणी से उसके गर्भ के सम्बन्ध में पूछा। १ देखिये जैन धर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भाग, पृ० ५४५ से ५५३ -सम्पादक इतो य उज्जेणीये पज्जोतसुता दोणि पालो गोपालमो य, गोपालप्रो पब्वइतो पालगो रज्जे ठितो, तस्स दो पुत्ता पालको प्रतिवद्धणं राजाणं रज्जवद्धरणं जुवरायारणं ठवेत्ता पम्वइतो . [प्राव० चूणि, भा० २ पृ० १८६] (स) तो राज-युवराजी च, कृत्वाभूत्पालको वती। [प्रावश्यक कथा] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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