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________________ चंत्यवास] सामान्य पूर्वधर-काल : मार्य रेवती नक्षत्र __ वस्तुत: इतिहास इस बात का साक्षी है कि ज्यों ज्यों श्रमणों में राजनैतिक सम्मानों के प्रति आकर्षण बढ़ता गया, त्यों त्यों वैयक्तिक प्रभाव के माध्यम से मुनिगण संयम-मार्ग से उत्तरोत्तर विचलित होते गये । स्वाध्याय के प्रति उनकी उदासीनता बढ़ती गई और उनके लिये धर्म के मोलिक प्राचरण केवल वाणीविलास के साधनमात्र रह गये । यह एक तथ्य है कि जब सुखोपभोग की वृत्तियां जीवन में साकार होती हैं, तब संयमित जीवन की यथावत् प्रतिपालना समस्या का रूप धारण कर लेती है। इस प्रकार जीवन में सुखोपभोग की वृत्तियों के साकार होने के फलस्वरूप वनवास से वसतिवास, तदनन्तर वसतिवास से चैत्यवास प्राया और विक्रम की १५वीं शताब्दी के पश्चात् यही चैत्यवास परिवर्तित होते होते यतिसमाज के मठवास-उपाश्रयवास के रूप में बदल गया। त्रिपुटी मुनि द्वारा, 'जैन परम्परा नो इतिहास, प्रथम भाग' में किये गये उल्लेखानुसार चन्द्रकुल के प्राचार्य सामन्तभद्र ने जिस समय बनवास प्रचलित किया, उस समय उनके साथ नागेन्द्र, चन्द्र, निवृत्ति और विद्याधर कुलों के अन्य श्रमण भी वन में रहने लगे और तब से "वनवासी गच्छ” नाम प्रारम्भ हुमा । परन्तु समय की विषमता के कारण वन के निवास में बहुत सी बाधाएं खड़ी होने लगीं। राजाओं के एक-दूसरे के साथ भयंकर युद्ध, बारम्बार दीर्घकाल के दुष्काल, माहार-पानी की दुर्लभता, पठन-पाठन में अन्तराय-विक्षेप, श्रुत का ह्रास, शक्ति की क्षीणता, लोकों की प्रीति एवं संघ की अस्तव्यस्तता इत्यादि कारणों से श्रुतधरों ने गम्भीर विचारणा के पश्चात् श्रावकों की बस्ती में नहीं किन्तु मन्दिरों के पास उपाश्रय में उतरने की मर्यादा प्रचलित की। इसका प्रारम्भ वीर सं०८८२ में हो गया। यद्यपि उस समय वन के बदले मुनि लोग वसति के चैत्य और उपाश्रय मात्र में उतरते थे किन्तु वहां वे स्थानपति होकर नहीं रहते थे। चैत्यवसति में उतरने पर भी वे सततविहारी होने के कारण विहरूक कहलाते थे। पर समय के प्रभाव से इस मर्यादा में भी शिथिलता पाई और कितने ही मुनियों ने स्थायी रूप से चैत्यवास अपना लिया। वीर निर्वाण की बारहवीं, अर्थात् विक्रम की माठवीं शती के अन्त में तो यह चैत्यवास विकृत होकर घरवास जैसा बन गया। जैन श्रमण अपनी निर्ग्रन्थता और वीतरागभाव की साधना के लिये सदा से यह परमावश्यक मानते रहे हैं कि जितना हो सके गृहीजनों के संसर्ग से बचा जाय, ताकि उनके मन में रागभाव की उत्पत्ति ही न हो सके। चिरकाल तक किसी एक स्थान पर रहने से रागवृद्धि के साथ निर्ग्रन्थता में विकृति पाना संभव है। इस दृष्टि से उन्होंने अपना निवास भी गृहस्यों के संसर्ग से दूर और अस्थिर रखा। इसी भावना को लेकर भगवान् महावीर के पश्चात् भी जैन श्रमरण अनसंसर्ग से दूर विविक्तवास और "गामे गामे एग रायं, नगरे नगरे पंच रायं" इस वचन के अनुसार प्रतिबद्ध भाव से नवकल्पी विहार करते रहे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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