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________________ ६२४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [चैत्यवास भपवाद रूप से भले ही कभी किसी ने वसतिवास किया हो पर उस समय तक साधुनों का प्रायः वन में ही निवास होता था। इतना होते हुए भी वे साधु वनवासी गच्छ के नाम से नहीं अपितु निग्रंथ गच्छ के नाम से ही पहिचाने जाते रहे । इसके पश्चात् सामन्तभद्र का समय आता है । उस समय में सामन्तभद्र का साधुसमुदाय 'वनवासी गच्छ' - इस नये नाम से पुकारा जाने लगा इसके पीछे कोई खास कारण होना चाहिये । सामन्तभद्र ने कोई नवीन रूप से वनवास स्वीकार नहीं किया पर सम्भव है उनके समय में वसतिवास का प्रचार बढ़ चला हो और वनवासी अल्पसंख्या में रहे हों। उस स्थिति में वसतिवास के बढ़ते प्रचार को रोकने के लिए सामन्तभद्र ने वनवास का प्रचार करना प्रारम्भ किया हो। जैसा कि तपागन्छपट्टावलीकार ने उल्लेख किया है : "पूर्वश्रुत के विशारद और वैराग्यनिधि सामन्तभद्र ने शरीर की सुखसुविधा को छोड़ कर निर्ममत्व भाव से देवकुल और वन-उद्यान आदि में ठहरना स्वीकार किया इसलिए वे "वनवासी" नाम से पुकारे जाने लगे।"" सामन्तभद्र द्वारा की गई इस व्यवस्था के लिए कहना चाहिये कि यह एक । प्रकार से त्यागी वर्ग में शिथिलता के प्रवेश को रोकने का एक शुभ प्रयत्न था। पर समय के प्रभाव और मनोबल की मन्दता से साधु-समुदाय में इस प्रकार की कड़ी व्यवस्था अधिक समय तक नहीं चल सकी। प्रभावक चरित्र में मानदेवसूरि के प्रबन्ध में वृद्धदेवसूरि को चैत्यवासी बताया गया है। वे चैत्य की व्यवस्था करते थे पर सर्वदेवसूरि द्वारा प्रतिबोध पाकर उन्होंने चैत्य का वैभव छोड़ दिया। उपरोक्त घटना यदि सत्य हो तो इससे प्रमारिणत होता है कि विक्रम की दूसरी शताब्दी में भी चैत्यवास प्रचलित था। - कुछ भी हो इतना तो निश्चित है कि सामन्तभद्र द्वारा पुनरुज्जीवित वनवास अधिक समय तक नहीं चल सका । अल्प समय में ही वसतिवास में परिवर्तन होते-होते वीर नि० सं० ८०० के आसपास उसने चैत्यवास का रूप धारण कर लिया, जैसा कि धर्मदास गणो ने तपागच्छ पट्टावली में उल्लेख किया है : "धीर नि० सं० ८८२ के पश्चात" "चैत्यस्थितिः" अर्थात चैत्यवास की स्थिति हुई।" वस्तुतः तात्कालिक स्थिति का अध्ययन करने से ऐसा प्रतीत होता है कि इससे भी काफी पहले इसका प्रचलन विद्यमान था। मुनि कल्याणविजयजी आदि इतिहासज्ञ विद्वानों का भी खयाल है कि इससे भी पहले चैत्यवास की जड़ जम गई थी और वीर नि० सं० ७८२ तक तो इसकी सार्वत्रिक प्रवृत्ति हो गई थी। " श्री चन्द्रसूरिपट्टे षोडश: श्री सामन्तभद्रसूरिः । स च पूर्वगतश्रुतविशारदो वैराग्यनिधिनिर्ममतया देवकुलवनादिष्ववस्थानात् लोके बनवासीत्युक्तस्तस्माच्चतुर्य नाम वनवासीति प्रादुर्भूतम् । [तपागच्छ पट्टावली, पृ० ७१] २ दयशीत्यधिकाष्टशत (८८२) वर्षातिकमे चैत्यस्थितिः । – पट्टा० समु०, पृ० ५० For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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