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________________ ४०२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [कोशा द्वारा मुनि को प्र. रत्नकम्बल माग कर लाया है और उसे वेश्या को देने के लिये ले जा रहा है। चोरराट् ने साश्चर्य एक अट्टहास किया और मुनि को अपनी अभीष्टसिद्ध्यर्थ जाने की अनुमति प्रदान कर दी। रत्नकम्बल लिये वह मुनि कोशा वेश्या के सम्मुख उपस्थित हया और ललचाई हुई अांखों से अपनी आन्तरिक अभिलाषा अभिव्यक्त करते हुए उसने कठोर परिश्रम से प्राप्त वह रत्नकम्बल कोशा के हाथों में रख दिया । कोशा ने उस रत्नकम्बल से अपने पैरों को पोंछ कर उसे गन्दी नाली के कीचड़ में फेंक दिया। अथक प्रयास और अनेक कष्टों को झेलने के पश्चात् लाये गये उस रत्नकम्बल की इस प्रकार की दुर्दशा देखकर मुनि ने अति खिन्न एवं आश्चर्यपूर्ण स्वर में कहा – “मीनाक्षि ! इतने महाय॑ रत्नकम्बल को तुमने इस अशुनिपूर्ण कीचड़ में फेंक दिया, तुम बड़ी मूर्खा हो।" . कोशा ने तत्क्षण उत्तर दिया - "तपस्विन् ! आप एक महामूढ़ व्यक्ति की तरह इस कम्बल की तो चिन्ता कर रहे हैं पर आपको इस बात का स्वल्पमात्र भी शोक नहीं है कि आप अपने चारित्र-रत्न को अत्यन्त अशुचिपूर्ण पंकिल गहन गर्त में गिरा रहे हैं।" कोशा की बोधप्रद कटूक्ति को सुनते ही मुनि के मन पर छाया हुआ कामसम्मोह तत्क्षण विनष्ट हो गया। उन्हें अपने पतन पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उन्होंने अत्यन्त कृतज्ञतापूर्ण स्वर में कोशा से कहा- "श्राविके! तुमने मुझे समूचित शिक्षा देकर भवसागर में निमज्जित होने से बचा लिया है। गुरुप्राज्ञा की अवहेलना कर मैंने जो यह पापाचरण किया है, उसकी शुद्धि हेतु मैं अभी गुरुदेव की शरण में जाकर कठोर प्रायश्चित्त ग्रहरण करूंगा।" यह कहकर मुनि तत्काल कोशा के घर से निकलकर प्राचार्य सम्भूतविजय की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने अपने पतन का सत्वा विवरण उनके समक्ष प्रस्तुत करते हुए क्षमायाचना के साथ-साथ समुचित प्रायश्चित्त ग्रहण कर अपनी शुद्धि की। उन्होंने मुक्तकण्ठ से मुनि स्थूलभद्र की प्रशंसा करते हुए कहा- "प्रार्य स्थूलभद्र वस्तुतः महान् हैं। सच्चे कामविजयी होने के कारण वे ही 'दुष्करदुष्करकारक" की सर्वोत्कृष्ट महती उपाधि से विभूषित किये जाने योग्य हैं।" तदनन्तर वे मुनि निर्मल भाव से कठोर तपश्चरण और निरतिचार संयम साधना से अपने कर्मसमूह को विध्वस्त करने में प्रवृत्त हो गये। श्रीयक को विरक्ति शकडाल पुत्र स्थूलभद्र की तरह शकडाल की यक्षा, यक्षदिन्ना, भूता, भूतदिना, सेरणा, वेणा और रेणा नामक सातों पुत्रियों ने भी अपने पिता की मृत्यू के पश्चात् संसार से विरक्त हो दीक्षा ग्रहण कर ली थी। वररुचि को भी उसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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