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________________ ४१६ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [तृतीय निन्हव की उत्पत्ति समय रात्रि में हृदयशूल की व्यथा से पीड़ित हो काल कर सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हए। उस समय उनके सभी श्रमण निद्राधीन थे अतः गच्छ के किसी साधु को उनकी मृत्यु हो जाने के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं हो सका। । उधर सौधर्म देवलोक में तत्काल उत्पन्न हुए प्राचार्य आषाढ़ के जीव ने देवभव में अवधिज्ञान लगाकर जब वस्तुस्थिति को जाना तो अपने शिष्यों के प्रति अनुकम्पा से प्रेरित हो वे अपने मूल शरीर में प्रविष्ट हो गये। उन्होंने साधुओं को उठा कर वैरात्रिक काल के कार्यक्रम करने की उन्हें प्रेरणा दी और अवशिष्ट वाचनाएं यथासमय पूर्ण की। वाचनाएं पूरी होने के पश्चात् अपने शरीर को छोड़कर सौधर्म देवलोक में जाते समय उन्होंने साधुओं से कहा - "मुनियो ! असंयत होते हुए भी मैंने आपको मुझे वन्दन करने से नहीं रोका, उसके लिये आप मुझे क्षमा करें। आप लोग सर्वविरति साधु हैं और मैं अमुक रात्रि में काल कर देव बन चूका हं पर तुम लोगों पर अनुकम्पा वश पुनः देवलोक से अपने इस शरीर में आकर मैंने वाचना-कार्य पूर्ण कराया है।" इस प्रकार कहकर जब देव चला गया तब वे साधु मृत शरीर की परिस्थापनक्रिया करने के पश्चात् सोचने लगे- "अहो ! हमने बहुत समय तक ' असंयती की वंदना की। न मालूम इस तरह अन्यत्र भी कौन वास्तव में संयमी और कौन देव है, यह मालूम करना कठिन है, अतः सबको वन्दन न करना ही समुचित है अन्यथा असंयमी-वंदन और मृषावाद का दोष लग सकता है।" इस प्रकार तीव्र कर्म के उदय से वे अपरिणत बुद्धि साधु अव्यक्तवादी बन गये और उन्होंने परस्पर वन्दन-व्यवहार पूर्णतः वन्द कर दिया। स्थविरों ने उन्हें अनेक प्रकार से समझाने का प्रयत्न करते हुए कहा - "साधुनो ! यदि तुम्हें अन्य सब में सन्देह ही करना है तो देव की वात पर सन्देह क्यों नहीं किया ? अपने इस अव्यक्तवादी सिद्धान्त के अनुसार तुम निश्चयपूर्वक यह नहीं कह सकते कि वह वस्तुतः कोई देव था या कोई मायावी। जिस प्रकार तुम्हें उसने अपने प्रापको देव बताया और बाहर से भी उसके दिव्य तेज को देखकर उसकी बात को सच मानते हुए उसे देव माना, उसी प्रकार साधु को भी उसके वचन और व्यवहार से सच मानना चाहिये।" इस प्रकार अनेक तरह से समझाने पर भी जब वे साधु नहीं समझे तो उन्हें श्रमणसंघ द्वारा संघबाह्य घोषित कर दिया गया। . संघ से निष्कासित किये जाने के कुछ ही समय पश्चात् वे अव्यक्तवादी निन्हव साधु घूमते-घामते राजगृह नगर में आये। उस समय वहां मौर्यवंश में उत्पन्न वलभद्र' नामक राजा शासन करता था जो कि जैन धर्म का श्रद्धालु श्रावक था। ' नन्दवंश का अन्त और पाटलीपुत्र में मौर्यवंश के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य का अभ्युदय वीर नि० संवत् २१५ में हुप्रा अतः अनुमान किया जाता है कि वीर नि० सं० २१४ में निन्हव बनने के कतिपय वर्षों पश्चात् वे लोग अपने मत का प्रचार करते हुए राजगृह में माये हों और मौर्यवंशी सामन्त बलभद्र ने उन्हें प्रतिबोध दिया हो। -सम्पादक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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