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________________ . ललितांग का दृष्टांत] 'श्रुतकेतली-काल : प्राचार्य प्रभवस्वामी २६९ ललितांग पर दया कर के वह दासी प्रति दिन प्रचुर मात्रा में उस कुएं में जूठन डालती और सार्थवाहपुत्र ललितांग उस जूठन एवं दुर्गन्धपूर्ण गन्दे पानी से अपनी भूख और प्यास शान्त करता। . अन्ततोगत्वा वर्षा ऋतु प्राई और वर्षा के कारण वह कुयां पानी से भर गया। सफाई का कार्य करने वाले कर्मचारियों ने गन्दे नाले से जुड़ी हुई उस कुएं की मोरी को खोला। मोरी के खोलते ही पानी के तेज बहाव के साथ ललितांग गंदे नाले में बहकर दूर, नाले के एक किनारे जा पड़ा। ललितांग एक लम्बे समय तक गंदे और बंद कुएं में रह चुका था अतः बाहर की हवा लगते ही वह मूच्छित हो गया। उसको गन्दे नाले के एक छोर पर मूच्छितावस्था में पड़े देख कर बहुत से नागरिक वहां एकत्रित हो गये। ललितांग की धाय भी मूच्छित युवक की बात सुन कर वहां पहुंची और बहुत समय से खोये हुए अपने ललितांग को पहिचान कर उसे सार्थवाह के घर ले आई । दीर्घकालीन उपचारों के पश्चात् ललितांग बड़ी कठिनाई से स्वस्थ हमा।" ललितांग के उपर्युक्त दृष्टान्त का उपसंहार करते हुए जम्बूकुमार ने कहा“प्रभव ! इस दृष्टान्त में वरिणत ललितांग के समान संसारी जीव हैं, रानी के दर्शन के समान मनुष्यजन्म है। दासी का उपमेय इच्छा, अन्तःपुरप्रवेश-विषयप्राप्ति, दुर्गन्धपूर्ण कूप में प्रवेश-गर्भवास का द्योतक, उच्छिष्टभोजन-माता द्वारा खा कर पचाये हुए अन्न तथा जल के स्राव के आहार का, कूप से वाहर निकलनाप्रसवकाल का और धात्री द्वारा परिचर्या-देह की पुष्टि करने वाले कर्मविपाक की प्राप्ति का प्रतीक है।" ____ जम्बूकुमार ने प्रभव से प्रश्न किया- "कहो प्रभव ! यदि वह रानी ललितांग को पुनः अपने यहाँ आने का निमन्त्रण दे, तो क्या वह उसके निमन्त्रण को स्वीकार करेगा?" प्रभव ने दृढ़तापूर्ण स्वर में उत्तर दिया- "नहीं, कभी नहीं। इतना घोर नारकीय कष्ट उठा चुकने के पश्चात् वह कभी उस ओर मुंह भी नहीं करेगा।" जम्बूकुमार ने कहा - "प्रभव ! वह कदाचित् अज्ञान के वशीभूत हो, विषयभोगों के प्रति प्रगाढ़ासक्ति के कारण पुनः रानी के निमन्त्रण पर जा सकता है किन्तु मैंने बन्ध और मोक्ष के स्वरूप को समीचीन रूप से समझ लिया है अतः मैं तो किसी भी दशा में जन्म-मरण की मूल और भवभ्रमण में फंसाने वाली रागद्वेष को परम्परा को स्वीकार नहीं करूंगा।" इस पर प्रभव ने कहा - "सौम्य ! आपने जो कुछ कहा है, वह यथार्थ है किन्तु मेरा एक निवेदन है, वह सुनिये । लोकधर्म का निर्वहन करते हुए पति को अपनी पत्नियों का लालन-पालन एवं परितोष करना चाहिये। यह प्रत्येक पति का नैतिक दायित्व है । तदनुसार इन नववधुओं के साथ कुछ वर्षों तक सांसारिक सुखोपभोग करने के पश्चात् ही आपका प्रवजित होना वस्तुतः शोभास्पद रहेगा।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org!
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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