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________________ ३६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ छेदसूत्रकार श्रुत० भद्रबाहु - दशाश्रुतस्कन्ध सूत्र के नियुक्तिकार ने नियुक्ति के प्रारम्भ में लिखा है : वंदामि भद्दबाहुं, पाईणं चरिम सगलसुयनारिणं । सुत्तस्स कारगमिसि, दसासु कप्पे य ववहारे || १ || अर्थात् में दशाश्रुतस्कन्ध, कल्प और व्यवहार सूत्र के प्रणेता प्राचीन गोत्रीय एवं अन्तिम श्रुतकेवली महर्षि भद्रबाहु को नमस्कार करता हूं । यह एक अद्भुत संयोग की बात है कि दशाश्रुतस्कन्ध के नियुक्तिकार का नाम भी भद्रबाहु है और वे भद्रबाहु नमस्कार कर रहे हैं प्राचीन गोत्रीय श्रुतकेवली भद्रबाहु को । वस्तुतः यह एक बड़ा ही महत्वपूर्ण और निर्णायक तथ्य है जिस पर आगे विचार किया जायगा । पंचकल्प महाभाष्यकार ने उपरिलिखित गाथा में वरिगत तथ्यों की पुष्टि निम्नलिखित रूप में की है : भद्दंति सुंदरं ति य, तुल्लत्थो जत्थ सुंदरा बाहू । सो होति भद्दबाहु, गोण्णं जेणं तु बालत्ते ॥ ६॥ पाए र लक्खिज्जइ, पेसलभावो तु बाहुजुयलस्स । उववण्णमतो रणामं, तस्से यं भद्दबाहुत्ति ||७|| to वि भद्दबाहू, विसेसरणं गोण्णगहण पाईणं । अण्ोसि पविसिट्ठे, विसेसरणं चरिमसगलसुतं ॥ ८ ॥ चरिमो पच्छिमो खलु चोद्दसपुव्वा तु होति सगलसुतं । सेसारण वुदा सट्ठा, सुत्तकरज्भयरणमेयस्स || || कि तेरण कयं तं तू, जं भण्णति तस्स कारतो सोउ । भण्गति गरणधारीहिं सव्वसुयं चेव पुव्वकयं ॥ १० ॥ तत्तोच्चिय रिगज्जूढं प्रगुग हरणट्ठाए संपयजतीरणं । तो सुत्तकारतो खलु, स भवति दसकप्प ववहारे ।। ११ ।। इन गाथाओं में सुन्दर भुजाओं वाले प्राचीन गोत्रीय एवं अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु की छेदसूत्रकार के रूप में स्तुति करते हुए भाष्यकार ने इस बात का संकेत किया है कि भद्रबाहु नाम के अन्य भी प्राचार्य हुए हैं । अतः पेशल - सुन्दरभुज, प्राचीन गोत्रीय और अन्तिम श्रुतकेवली ये विशेषण छेद सूत्रकार भद्रबाहु के लिये प्रयुक्त किये हैं । यह ध्यान में रहे कि इन गाथाओं में उपर्युक्त तीन विशेषरणों से युक्त भद्रबाहु के निर्युक्तिकार होने का कोई उल्लेख नहीं किया गया है। निर्युक्तिकार और भाष्यकार दोनों ने ही आचार्य भद्रबाहु को दशाश्रुत, कल्प और व्यवहार इन तीन छेदसूत्रों का कर्त्ता माना है । पंचकल्प भाष्य की चूरिंग में इन्हें श्राचारकल्प अर्थात् निशीथ सूत्र का प्रणेता' भी बताया गया है। विक्रम की पांचवीं शताब्दी के प्रारम्भ में प्रणीत “तित्थोगालिय पइण्णा" नामक ग्रन्थ में 1 तेरण भगवता प्रायारपकल्प-दसा कप्प-ववहारा य नवमपुव्वनीसंदभूता निज्जूढ़ा । Jain Education International For Private & Personal Use Only [ पंचकल्पचूरिंग । पत्र १ ] www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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