SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ केवलिकाल : इन्द्रभूति गौतम - भगवान् महावीर के इन्द्रभूति प्रादि ग्यारहों प्रमुख शिष्यों ने भगवान की वाणी को जो द्वादशांगी के रूप में ग्रथित किया उसमें इन्द्रभूति गौतम, अग्निभूति, वायुभूति, आर्यव्यक्त, पार्यसुधर्मा, मंडित और मौर्यपुत्र इन सात गणधरों की अलग-अलग रूप से सात वाचनाएं थीं। आठवीं वाचना के रूप में प्रकम्पित एवं मचल माता की सम्मिलित रूप से एक वाचना थी, तथा नवमी वाचना के रूप में मेतार्य मोर प्रभास की भी सम्मिलित रूप से एक वाचना थी। इस प्रकार क्योंकि पृथक-पृथक रूप से ६ वाचनाएं थीं, अतः पृथक-पृथक् वाचनाभेद की दृष्टि से भगवान महावीर के ६ गण विख्यात हुए एवं अलग-अलग व्यक्तियों की दृष्टि से ११ गणधर कहलाये।' भगवान् महावीर के ६ गणों के स्थान पर समवायांग सूत्र में बताई गई ११ गण संख्या, गणधरों के अधीन ११ साधु समुदायों की अपेक्षा से होनी संभव है। दीक्षा-समय पिता की विद्यमानता श्वेताम्बर साहित्य में इन्द्रभूति गौतम के दीक्षाकाल में उनके पिता के विद्यमान होने अथवा न होने का कोई उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। दिगम्बर परम्परा के भी अधिकांश प्राचार्य इस विषय में मौन हैं। किन्तु दिगम्बर कवि 'रयधु' ने जो अपभ्रंश भाषा में महावीर-चरित्र लिखा है उसके अनुसार इन्द्रभूति के दीक्षाकाल में उनके पिता शांडिल्य विद्यमान थे। जब देवपति शक्रेन्द्र के साथ इन्द्रभूति गौतम भगवान् महावीर के समवसरण की ओर प्रस्थान करने लगे तब उनके दोनों भाई अग्निभूति और वायुभूति भी अपने छात्रमंडल सहित उनके साथ हो लिये। यह देख कर इन्द्रभृति के पिता शांडिल्य ब्राह्मण चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगे- "हाय रे दुर्दैव ! मेरा तो सर्वस्व लुट गया। मेरे इन पुत्रों के जन्मसमय नैमित्तिक ने अपनी भविष्यवाणी में कहा था कि तुम्हारे ये पुत्र जैनधर्म की महती प्रभावना कर परम-सौख्यदायी मार्ग को प्रशस्त करने वाले होंगे। प्राज उस ज्योतिषी की बात सत्य होने जा रही है। हाय ! यह मायावी महावीर यहां कहां से प्रा गया है ?" ' समणस्स भगवनो महावीरस्स नव गणा एक्कारस गणहरा होत्या। [कल्प सूत्र (स्थविरावली) सूत्र २०१] २ समणस्स भगवनो महावीरस्स एक्कारस गणा एक्कारस गणहरा होत्या-तं जहा...... [समवायांग सूत्र, समवाय ११] ता संडिल्ले विप्पे सिट्ठउ, हा हा हा कहु काज विणट्ठउ । एपहिं जम्मरणदिणि मई लक्खिउ, ऐमित्तिएण मज्म णिउ अक्खहु ॥ ए तिष्णि वि जिणसमय- पहावरण, पयड करेसहि सुहगइ दावण । तं. पहिहाणु एह पुणु जायउ, कुवि मायादि इहु णिस पायउ ।। ___ [महावीर चरित, (अप्रकाशित) पत्र ५० ए] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy