SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 784
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६५४ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [हिमवंत क्षमा० वा. देवद्धि द्वारा प्रणीत उपरोक्त गाथानों से यह स्पष्टतः प्रतीत होता है कि हिमवंत क्षमाश्रमण कई पूर्वो के ज्ञाता और समर्थ व्याख्याता-वाचनाचार्य थे। उन्होंने दूर-दूर के क्षेत्रों में विचरण कर जैन धर्म का उल्लेखनीय प्रचार एवं प्रसार किया था। प्रचारक्षेत्रों में आने वाले कष्टों को भी उन्होंने बड़े धैर्य के साथ सहन किया। नंदीसूत्र-स्थविरावली के अनुसार प्राचार्य हिमवान् (हिमवन्त) स्कन्दिलाचार्य के शिष्य माने गये हैं। आपके जन्म, दीक्षा, प्राचार्यकाल एवं स्वर्गगमन विषयक स्पष्ट उल्लेख के नहीं होते हुए भी इतना तो कहा जा सकता है कि आप वीर को नौवीं शताब्दी के मध्यवर्ती काल के प्राचार्य होने चाहिए। २३ (२७) प्राचार्य नागार्जुनः वाचनाचार्य हिमवन्त क्षमाश्रमण के पश्चात् आर्य नागार्जन वाचनाचार्य हए। कहा जाता है कि नागार्जुन ढंक नगर के क्षत्रिय संग्रामसिंह के पुत्र थे। उनकी माता का नाम सुव्रता था । नागार्जुन के गर्भ में आते ही माता ने स्वप्न में सहस्र फन वाला नाग देखा, इसलिये बालक का नाम नागार्जुन रखा गया। कहा जाता है कि नागार्जुन ने बाल्यावस्था में ही एक सिंह को मार गिराया और प्रारम्भ से ही प्रबल साहसी होने के कारण पर्वतों की गुफाओं एवं जंगलों में घूम-घूम कर वनवासी महात्माओं के संसर्ग से वनस्पतियों, जड़ियों और रसायनों द्वारा रस बनाना सीख लिया। उसने बचपन से ही पादलिप्तसूरि के अद्भुत चमत्कारों की बात सुन रखी थी अतः एक दिन प्राचार्य पादलिप्तसूरि के पास उनके किसी शिष्य के माध्यम से उसने एक रसकूपिका पहुंचाई। प्राचार्य ने रसकूपिका में भरे रस को एक पत्थर पर उंडेल दिया और उसमें अपना प्रस्रवण भर उसे नागार्जुन के पास लौटा कर कहला भेजा कि वह अपनी रसकूपिका सम्हाल ले । नागार्जुन ने भी उस रसकूपिका को पत्थर पर दे मारा । कूपिका को पत्थर पर पछाड़ते ही पत्थर में अग्नि प्रदीप्त हो उठी और वह पत्थर तत्काल स्वर्ण के रूप में परिवर्तित हो गया। यह देख कर नागार्जुन दंग रह गया और पादलिप्तसूरि के पास जाकर उनके चरणों में गिर गया। उसी दिन से नागार्जुन प्राचार्य पादलिप्त का परम भक्त बन कर उनके पास रहने लगा । नागार्जुन इतना प्रतिभावान् था कि वह पादलिप्तसूरि के पैरों के लेप को संघ-संघ कर १६० वनस्पतियों के गुण-धर्म आदि से परिचित हो गया। लेप द्वारा वह स्वयं गगन-विचरण की प्रक्रिया को मूर्त रूप देने लगा। पर एक वस्तु की अपूर्णता के कारण वह कुछ दूर तक आकाश में गमन करने के पश्चात् पृथ्वी पर गिर पड़ता। यह जान कर प्राचार्य ने उसकी सूक्ष्म बौद्धिक प्रगल्भता से प्रसन्न हो कर कहा - "वत्स ! तुम्हारा औषधविज्ञान निस्संदेह गवेषगापूर्ण है पर इसमें कुछ गुरुगम्य ज्ञान की न्यूनता रह गई है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy