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________________ ६५३ माय स्कंदिल-वाचना•] सामान्य पूर्वधर-काल : पायं स्कन्दिल आगमज्ञान को नष्ट होने से बचाकर प्रार्य स्कन्दिल ने जिन-शासन की अमूल्य सेवा के साथ-साथ मुमुक्षों, तत्त्वजिज्ञासुमों एवं साधकों का जो असीम उपकार किया है, उसके लिये जिन-शासन में प्रगाढ़ श्रद्धा के साथ उनका स्मरण किया जाता रहेगा। प्रागमवाचना की समाप्ति के पश्चात् कितने वर्ष तक आर्य स्कन्दिल प्राचार्य पद पर रहे, यह सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, केवल अनुमानित कालं ही बताया जा सकता है। सम्भव है माप वीर नि० सं० ८४० के प्रासपास किसी समय में स्वर्गाधिकारी हुए हों। आपने अन्तिम समय में अनशन एवं समाधिपूर्वक मधुरा नगरी में प्राणोत्सर्ग किया। प्राचार्य स्कन्दिल और नागार्जुन भागमवाचनाओं के पश्चात् परस्पर मिल नहीं सके, इसी कारण दोनों वाचनाओं में रहे हुए पाठ-भेदों का निर्णय अथवा समन्वय नहीं हो सका। २२ (२६) दिमवन्त क्षमाश्रमण-वाचनाचार्य प्राय स्कन्दिल के पश्चात् आर्य हिमवान् वाचनाचार्य हुए। आपके जन्म, दीक्षा प्रादि का स्पष्ट काल-निर्देश उपलब्ध नहीं होता। केवल नंदीसूत्रस्थ स्थविराक्ली से प्रापका थोड़ा सा परिचय प्राप्त होता है। नंदी-स्थविरावली में प्राचार्य देवदि ने प्राय हिमवन्त की स्तुति करते हुए कहा है :- . ततो हिमवंतमहन्तविक्कमे धिइपरक्कममणंते । सज्मायमणंतधरे, हिमवन्ते वंदिमो सिरसा ॥३३॥ कालिप्रसुयप्रणुप्रोगस्स, धारए धारए य पुव्वाणं । हिमवंतखमासमणे, वंदे णागज्जुणायरिए ॥३४॥ स्थविरावलीकार प्रार्य देववाचक ने आर्य हिमवन्त के विक्रम की हिमालय पर्वत से तुलना की है। इसका अभिप्राय स्पष्ट करते हुए रिणकार ने बताया है :"जिनका यश उत्तर में हिमवान् पर्वत व शेष दिशाओं में समुद्र तक फैला हुआ है और जो विशिष्ट सामर्थ्ययुक्त, कुल, गण एवं संघ के हित में प्रतिवादियों पर विजय प्राप्त करने एवं विशिष्ट लब्धिसम्पन्न होने के कारण महान् पराक्रमशाली तथा परीषह-उपसर्ग-सहन एवं तपविशेष में भी धृति-बल से महान थे, उन महान माचार्य हिमवंत को प्रणाम करता हूँ । जैसा कि कहा है : "महंत विक्कमो कहं- उच्यते सामर्थ्यतो महन्ते वि कूलगरण-संघ पोयणे तरति ति-परप्पवादिजयण वा विशेषबललब्धिसंपन्नतणतो वा महंत विक्कमो, महवा परिसहोवसग्गे तवविसेसे वा घितिबलेण परक्कमंतो महंतो। अणंत गम पाजवत्तरातो परतधरो तं महंत हिमवंत सामं वंदे ।' 'मौलि, पृ० १०, गा० ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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