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________________ ६५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मामं स्कंबिम-वाचता. प्रकार बिताकर सुकाल होने पर वे साधु पुनः मिले । स्वाध्याय करते समय उन्होंने अनुभव किया कि जो कुछ उन्होंने पहले अध्ययन किया था, वह आगमजान अनेक स्थलों की विस्मृति के कारण खंडित हो गया है। कहीं श्रुतज्ञान क्निष्ट न हो जाय, इस विचार से उन दोनों प्राचार्यों ने आगमों का उद्धार करना प्रारम्भ किया। जो पूरी तरह स्मरण था, उसको उसी प्रकार रख लिया गया और जो-जो स्थल विस्मृति के कारण नष्ट हो चुके थे, उनको पूर्वापर सम्बन्ध से सूत्रों के अनुसार पुनः सुसंगठित किया गया।' वाचनाभेद का कारण बताते हुए कहावलीकार ने लिखा है कि – 'मदुरा और वल्लभी में पृथक्-पृथक् हुई आगम-वाचनामों में प्रागमों का उद्धार करने के पश्चात् आर्य स्कन्दिल और आर्य नागार्जुन मिल नहीं सके। उनका स्वर्गवास हो गया। इसलिये उनके द्वारा उद्धरित सिद्धान्तों में समानता होने पर भी कहींकहीं पर जो वाचनाभेद रह गया था, वह वैसा ही बना रहा। पापभीरू पश्चाद्वर्ती प्राचार्यों ने उसे नहीं बदला। फलस्वरूप विवरणकारों ने भी 'नागार्जुनीयाः पुनः एवं कथयन्ति' इस प्रकार के उल्लेख से वाचनाभेद सूचित किया। योगशास्त्र की वृत्ति में भी उपरोक्त दोनों वाचनामों का उल्लेख करते हुए वत्तिकार ने लिखा है कि नागार्जुन और स्कन्दिलाचार्य ने दुष्षमाकाल के प्रभाव से जिनवचन को नष्टप्राय समझकर पुस्तकों में लिखा।' ___ इसी प्रकार ज्योतिषकरण्डक की टीका में भी मथुरा और वल्लभी में हुई वाचनाओं तथा उन दोनों वाचनामों में परस्पर वाचना-भेद होने का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि विस्मृत सूत्र एवं अर्थ को याद करके व्यवस्थित करने में वाचनाभेद हो जाना अवश्यम्भावी है। 'अस्थि महराउरीए सुयसमिद्धो, खन्दिलो नाम सूरि तह वलहीनयरीए नागज्जुणो नाम सूरि । तेहिं य जाए वरिसीए दुक्काले निवउ भावमो वि फुट्टिकाऊरण पेसिया दिसोदिसि साहवो गमिउं च कहवि दुत्थं ते पुणो मिलिया सुगाले, जाव सज्झायंति ताव खंडुखुरूडीहूयं पुष्वाहियं । तमो मा सूयविच्छित्ती होइत्ति पारद्धो सूरीहिं सिद्धन्तुद्धारो। तत्थवि जन वीसरियं तं तहेव संठवियं पम्हुवट्ठाणे उण पुन्वावराउत सुतत्थाणुसारमो कया संघडणा। [कहावली, २६८ (मप्रकाशित)] २ परोप्परासंपन्नमेलावा य तस्समयानो खंडिलनागज्जुणायरिया कालं काउं देवलोगं गया तेण तुल्लयाए वि तदुरियसिद्धताणं जो संजाप्रो कथमवि वायणभेप्रो सोय न चालिमो पच्छिमेहि । तमो विवरणकारेहि वि "नागज्जुरणीया उण एवं पढ़ती" ति समुल्लिगिया तहेवायाराइसु । - [वही] 3 जिनवचनं च दुःषमाकालवशादुच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुनस्कन्दिलाचार्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् । [योगशास्त्र, प्रकाश ३, पत्र २०७] ४ इह हि स्कंदिलाचार्यप्रवृत्ती दुष्षमानुभावतो दुभिक्षप्रवृत्या साधूनां पठनगुणनादिक सर्वमप्यनेशत् । ततो दुभिक्षातिक्रमे सुभिक्षप्रवृत्ती द्वयोः संघयोर्मेलापकोऽभवत् । तथा एको वलभ्यामेको मथुरायाम् । तत्र च सूत्रार्थसंघटने परस्परवाचनाभेदो जातः विस्मृतयोहि सूत्रार्थयोः स्मृत्वा संघटने भवत्यवश्यं वाचनाभेदः न काचिदनुपपत्तिः ।" . [ज्योतिषकरण्डक टीका]. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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