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________________ छठा निन्हव रोहगुप्त] दशपूर्वधर-काल : मार्य नागहस्ती __प्राचार्य श्रीगुप्त ने भी दुराग्रही समझ कर रोहगुप्त को श्रमणसंघ से बहिष्कृत कर दिया। शास्त्रज्ञान तथा अनेक विद्यामों में निष्णात, ज्ञान और प्रतिभा दोनों ही का धनी रोहगुप्त मिथ्याभिनिवेश के वशीभूत होकर मिथ्यात्वी हो गया। इससे प्रमाणित हो जाता है कि मिथ्याभिनिवेश वस्तुतः महान् अनर्थों का मूल है । मिथ्याभिनिवेश के वशीभूत व्यक्ति वर्षों से अर्जित ज्ञान, सम्यक्त्व, गुरुभक्ति प्रादि को तिलांजलि देकर अपनी प्रात्मा का घोर पतन कर बैठता है। जैन साहित्य मोर इतिहास के अनुसार यही रोहगुप्त वैशेषिक दर्शन का प्ररण्यनकर्ता माना गया है। रोहगुप्त का पौलुक्य गोत्र होने के कारण इसके द्वारा प्रणीत वैशेषिक दर्शन को पौलुक्य दर्शन तथा छः द्रव्यों का उपदेश करने के कारण पडोलुक्य दर्शन के नाम से भी अभिहित किया जाता है । कल्पसूत्र स्थविरावली में कौशिक गोत्रीय षडुलूक रोहगुप्त को प्रार्य महागिरि का शिष्य बताया गया है। प्रार्य महागिरि का प्राचार्यकाल वीर नि० सं० २१५ से २४५ तक माना गया है और रोहगुप्त द्वारा राशिक दर्शन का प्रवर्तन वीर नि० सं० ५४४ में किया गया। ऐसी स्थिति में रोहगुप्त को आर्य महागिरि का साक्षात् शिष्य किसी भी दशा में स्वीकार नहीं किया जा सकता। क्योंकि वी. नि. सं. २४५ में स्वर्गस्थ हुए प्रार्य महागिरि के साक्षात् शिष्य का उनसे ३२६ वर्ष पश्चात् विद्यमान रहना संभव नहीं। वस्तुतः रोहगुप्त युगप्रधानाचार्य श्रीगुप्त के साक्षात् शिष्य थे। आर्य श्रीगुप्त वास्तव में प्रार्य महागिरि की परम्परा में हुए अथवा किसी अन्य परम्परा में- इस प्रकार का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता। कल्पसूत्र स्थविरावली के इस उल्लेख से कि रोहगुप्त महागिरि के शिष्य थे, इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि युगप्रधानाचार्य श्रीगुप्त मार्य महागिरि की मूल परम्परा से निकली किसी शाखा में हुए हैं। इन सब तथ्यों पर विचार करने के पश्चात् यही निष्कर्ष निकलता है कि रोहगुप्त श्रीगुप्त का साक्षात् शिष्य और आर्य महागिरि की परम्परा के अन्तर्गत शिष्यानशिष्य सन्तति का एक श्रमण था । कल्प स्थविरावली के एतद्विषयक पाठ का अभिप्राय भी यही होना चाहिए। लिपिकार के दोष. अथवा वास्तविक पाठ के विस्मृति के गर्भ में तिरोहित हो जाने के कारण ही कल्पस्थविरावली में रोहगुप्त को प्रार्य महागिरि का शिष्य बताया गया है। 'नामेण रोहगुत्तो, गुत्तेण ५ लप्पए स चोलूमो।। दवाइ छप्पयत्यो- वएसरणामो छलूमोत्ति ॥२५०८ [वही] 'थेरस्स. णं प्रज्जमहागिरिस्स एलावच्चसगुत्तस्स इमे अट्ठ थेरा अंतेवासी प्रहावच्चा अभिण्णाया होत्था। तंजहा - थेरे उत्तरे.... थेरे छलुए रोहगुत्ते कोसिय गुत्तेणं । थेरेहितो पं छलुएहितो रणं रोहगुत्तेहितो तेरासिया साहा निग्गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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