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________________ २. सूत्रकृतांग] केवलिकाल : प्रार्य सुधर्मा ११५ होते हुए प्राध्यात्मिक साधना के पथ पर उत्तरोत्तर अग्रसर होने वाला साधक ही अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होता है। सुत्रकृतांग में आध्यात्मिक विषयों पर दिये गये सुन्दर एवं सोदाहरण विवेचनों से भारतीय जीवन, दर्शन और अध्यात्मतत्व का भलीभांति बोध हो जाता है । माज से ढाई हजार वर्ष पूर्व हमारे यहां भारतवर्ष में कौन-कौन से धर्म एवं संप्रदाय प्रचलित थे और उनकी किस-किस प्रकार की मान्यताएं थीं, इस सम्बन्ध में सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पहले एवं बारहवें तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध के 'पुण्डरीक', 'माईकीय' और 'नालंदीय' अध्ययनों में बड़ा सुन्दर दिग्दर्शन कराया गया है। वह वस्तुतः ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक आदि अनेक दृष्टियों से परमोपयोगी है। ___३. स्थानांग द्वादशांगी में स्थानांग का तीसरा स्थान है। समवायांग एवं नन्दी सूत्र में जो प्रागमों का परिचय दिया गया है उसमें स्थानांग का परिचय निम्नलिखित रूप में उल्लिखित है : स्थानांग नामक तीसरे पक्ष में स्वसमय, परसमय, स्व-पर उभय समय, जीव, अजीव, जीवाजीव, लोक, अलोक और लोकालोक की स्थापना की गई है। इसमें जीवादिक पदार्थों का उनके द्रव्य, गुरण, क्षेत्र, काल और पर्याय की दष्टि से विचार किया गया है। इसमें एक स्थान, दो स्थान, यावत् दश स्थान से दशविध वक्तव्यता की स्थापना तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आदि द्रव्यों की प्ररूपणा की गई है। स्थानांग में वाचनाएं, अनुयोगद्वार, प्रतिपत्तियां, वेष्टक, नियुक्तियां और संग्रहणियां-ये प्रत्येक संख्यात-संख्यात हैं। अंग की अपेक्षा यह तीसरा अंग है । इसमें एक श्रुतस्कन्ध, दश अध्ययन, २१ उद्देशनकाल, २१ समुद्देशनकाल, ७२,००० पद, अक्षर संख्यात, गम अनन्त, पर्याय अनन्त, तथा इसकी वर्णन-परिधि में असंख्यात त्रस और अनन्त स्थावर हैं। वर्तमान में उपलब्ध इस सूत्र का पाठ ३७७० श्लोक परिमारण है। स्थानांग एवं समवायांग - ये दो सूत्र अन्य दश अङ्गों से भिन्न प्रकार के संकलनात्मक अङ्ग हैं। इन दोनों अङ्गों में जैन प्रवचनसम्मत तथा लोकसम्मत तथ्यों के रूप में संसार की प्रायः सभी वस्तुओं का संख्या के क्रम से कोश-शैली में संग्रहात्मक निरूपण किया गया है। अगणित तथ्यों को स्थायी रूप से चिरकाल तक स्मृतिपटल पर अङ्कित रखने और अथाह ज्ञानार्णव में से अभीष्ट तथ्य को तत्काल खोज निकालने की अद्भुत क्षमताशालिनी जिस शैली का इन दो अङ्गों की रचना में उपयोग किया गया है वह वस्तुतः अद्वितीय और बड़ी ही उपयोगी शैली है। - स्थानांग में संख्याक्रम से द्रव्य, गुरग एवं क्रियानों आदि का निरूपण किया गया है। इसके प्रथम प्रकरण में एक-एक, दूसरे में दो-दो, तीसरे में तीन-तीन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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