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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य रेवतीनक्षत्र रेवतीनक्षत्र के शरीर का वर्ण जातीय अंजन, पकी दाख अथवा नील कमल के समान श्याम बताया है।
आर्य रेवतीनक्षत्र के समय में वाचकवंश की उल्लेखनीय अभिवृद्धि हुई थी। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रागम-वाचना में पाप विशिष्ट रूप से कुशल थे। आपके जन्म, दीक्षा आदि काल का परिचय उपलब्ध नहीं होता ।
प्रार्य रक्षित - युगप्रधानाचार्य ____आर्य वज्रस्वामी के पश्चात् प्रार्य रक्षित एक विशिष्ट युगप्रधान प्राचार्य माने गये हैं। इनका जन्म वीर नि० सं० ५२२ में, दीक्षा २२ वर्ष की वय होने पर वीर नि० सं० ५४४ में, युगप्रधानपद ४० वर्ष तक सामान्य श्रमणपर्याय पालन के पश्चात् वीर नि० सं० ५८४ में और ७५ वर्ष की पूर्णायु के पश्चात् वीर नि० सं० ५९७ में स्वर्गवास माना गया है। कुछ प्राचार्यों ने वीर नि० सं०.५८४ में आपका स्वर्गवास होना बताया है। आपके दीक्षागुरु प्राचार्य तोषलिपुत्र और विद्यागुरु आर्य वज्र माने गये हैं। आवश्यक रिण आदि प्राचीन ग्रंथों में आपका परिचय इस प्रकार उपलब्ध होता है :
मालव प्रदेश के दशपुर (मन्दसोर) नामक नगर में सोमदेव नामक एक ब्राह्मण पुरोहित रहते थे। उनकी धर्मपत्नी रुद्रसोमा जैनधर्म की उपासिका थी। सोमदेव के ज्येष्ठ पुत्र का नाम रक्षित और दूसरे का फल्गुरक्षित था। सोमदेव ने अपने पुत्र रक्षित को दशपुर में शिक्षा दिलाने के पश्चात् उच्च शिक्षा के लिए पाटलीपुत्र भेजा। प्रतिभाशाली किशोर रक्षित ने पाटलीपुत्र में रह कर स्वल्प समय में ही वेद-वेदांगादि १४ विद्याओं में निष्णातता प्राप्त की और अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् दशपुर लौटे। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् अपने पुरोहित-पुत्र के लौटने का समाचार सुन कर दशपुर के राजा ने और नागरिकों ने रक्षित का भव्य स्वागत किया। स्वागतार्थ उपस्थित लोगों में आर्य रक्षित को उनकी माता रुद्रसोमा कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुई।
सब लोगों का अभिवादन स्वीकार करने के पश्चात् रक्षित ने घर आकर माता को प्रणाम किया। सामायिक में होने के कारण रुद्रसोमा ने अपने पुत्र की प्रोर मध्यस्थभाव से देखा और 'स्वागतं' कह वह पुनः आत्मचिन्तन में लीन हो गई। माता की ओर से अपेक्षित वात्सल्य और उल्लास का अभाव और मध्यस्थ भाव देख कर रक्षित ने पूछा - "अम्ब ! मेरे विद्याध्ययन कर लौटने पर नगर में सबको प्रसन्नता है पर तुम्हारे मुख पर मुझे सन्तोष दृष्टिगत नहीं होता। इसका क्या कारण है ?"
माता रुद्रसोमा ने कहा- "पुत्र ! तुमने हिंसावर्द्धक ग्रन्थ पढ़े हैं, इससे तो जन्म-मरण रूपी भवभ्रमण की ही वृद्धि हो सकती है। ऐसी दशा में मुझे सन्तोष किस प्रकार हो ? स्व-पर का कल्याण करने वाले दृष्टिवाद को पढ़कर पाया होता तो मुझे सन्तोष होता।"
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