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________________ ७६ पाचारांग] केवलिकाल : पार्य सुधर्मा चतुर्थ उद्देशक में उस मुनि के लिये एकाकी विचरण वर्जनीय बताया गया है जो कि वय एवं ज्ञान की दृष्टि से अपरिपक्व अथवा परीषहों को सहन करने में सक्षम न हो। पंचम उद्देशक के प्रारम्भ में प्राचार्य की उस निर्मल जल से भरे उपशान्त जलाशय से तुलना की गई है जो अपने स्वच्छ जल से समस्त जलचर जन्तुओं की रक्षा करते हुए समभूमि में अवस्थित है। इसमें बताया गया है कि प्राचार्य भी उस स्वच्छ जलपूर्ण जलाशय के समान सदगुरणों से प्रोतःप्रोत, उपशान्त, मन एवं इन्द्रियों को वश में रखने वाले, प्रबुद्ध, तत्वज्ञ, और श्रुत से अपना तथा पर का कल्याण करने वाले हैं। जो साधक संशय रहित हो जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित तत्वज्ञान को सत्य समझ कर ऐसे महर्षियों की प्राज्ञानुसार संयम का पालन करता है वह समाधि को प्राप्त करता है। __ इस पांचवें उद्देशक के पांचवें सूत्र में हिंसा से उपरत रहने का जिन मार्मिक और अन्तस्तलस्पर्शी शब्दों में जो महत्त्वपूर्ण उपदेश दिया गया है वह उस रूप में संभवतः अन्यत्र विश्व के किसी दर्शन में उपलब्ध नहीं होगा। इसमें बताया गया है - (ो मानव ! ) जिसे तू मारने योग्य समझता है वह तू ही है, जिसे तू अपना प्राज्ञावर्ती बनाने योग्य समझता है वह तू ही है, जिसे तू परिताप पहुंचाने योग्य समझता है वह तू ही है, जिसे तू पकड़ने-बांधने योग्य समझता है वह तू ही है, जिसे तू प्राणों से वियोजित कर देने योग्य समझता है वह भी तू ही तो है। इस प्रकार के वास्तविक तथ्य को पहिचान कर प्रत्येक जीव को अपनी प्रात्मा के समान समझने वाला सरलवृत्ति युक्त साधु किसी भी जीव की न तो स्वयं हिंसा करें न किसी दूसरे से हिंसा करवाये और न किसी प्राणी की हिंसा का अनुमोदन ही करे। दूसरे की हिंसा के फलस्वरूप होने वाला घोर दुःख मेरी प्रात्मा को ही भोगना पड़ेगा इस प्रकार का विचार कर बुद्धिमान् अपने मन में किसी प्राणी की हिंसा का विचार तक न माने दे।' इस सूत्र में निहित उद्बोधन के माध्यम से स्पष्टरूपेण प्रत्येक प्राणी को सतर्क किया गया है कि किसी प्राणी के वध, बन्धन, उत्पीड़न आदि का विचार करना वस्तुतः स्वयं का वध, बन्धन, उत्पीड़न करना है। इस प्रकार के विचार करने वाला व्यक्ति सर्वप्रथम स्वयं ही अपने विचारों का निशाना बनता है । क्योंकि दूसरे प्राणी को पीड़ा पहुंचाने के संकल्पमात्र से, इस प्रकार का संकल्प करने वाले प्राणी के प्रात्मगुरगों का हनन हो जाता है। आत्मगुरणों का हनन वस्तुतः प्रात्मपात तुल्य है । ' तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतम्बंति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं प्रज्जावेयन्वंति मन्नसि, तुमंसि नाम सच्चेव जं परियावेयव्वं ति मन्नसि एवं जं परिघित्तव्वति मन्नसि, जं उद्दवेयंति मन्नसि अंजू चय परिबुद्ध जीवी, तम्हा न हंता न वि घायए, प्रणुसवेयरणमप्पाणेण जं हंतव्वं नाभिपत्थए। [प्राचारांग ५।५] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002072
Book TitleJain Dharma ka Maulik Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherJain Itihas Samiti Jaipur
Publication Year2001
Total Pages984
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Pattavali
File Size19 MB
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